उन दोनो ने हलवाई की दुकान देखी
गर्म समोसे और जलेबी छनती दिखी
वैसे तो थे दोनों खुद की जेब से तंग
पर फिर भी वह रहते थे मस्त मलंग.
देखने लायक थी आंखों में आई चमक
बस एक शैतानी मुस्काराहट की धमक
कुछ अनोखा कर गुजरने को थे आमादा
मानो कर रहे आँखों-आँखों में एक वादा.
अगले ही क्षण दोनों थे दुकान के अंदर
सांसों में छलका हो जैसे कोई समंदर
समोसे गरम थे, दोनों ने छककर खाए
ऊपर से उड़ाई खूब जलेबी एवं मलाई.
अब एक उठा, अपने हाथ-मुंह धोए
चल पड़ा बेफिक्र बाहर सिर उठाए
पर अब तो उसको हलवाई ने टोका
कहाँ जा रहे भैया बिन दिए रोकड़ा.
रोकड़ा, वह तो मैं था पहले ही दे आया
अब तो झल्लाहट में हलवाई गुस्साया
दूसरा उठा, जाकर हाथ-मुंह धो आया
फिर अब वह पहले के बचाव में आया.
भैया, तुम क्या सबको ऐसे ही ठगते हो
उम्मीद है मेरे बचे पैसे वापस करते हो
बाहर निकल, हरामखोर खुलकर हँसे
व अगले शिकार की तलाश में चल पड़े.
(This poem is based on a moral story from the ancient classic “Panchtantra” that I read years ago. This symbolizes the tendency of the selfish and avaricious people in society to exploit private traders and businesses to extract free service, money and material for self on various pretexts: Consequently, even honest businessmen perforce resort to unethical and illegal practices to recover losses and profiteering.)
Image Courtesy: Pinterest
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