
शरद ऋतु तो अभी भी आती है
पर पतझढ़ में अब वह बात कहाँ
वह वैभव वह भव्यता नहीं दिखती
जो बरसों पहले हुआ करती थी
पेड़ों से झिलमिल झरती वह पत्तियाँ
उनके लाल, पीले, नारंगी, सुरमई रंग.
वसंत भी हर साल अब भी आता है
पर नवजीवन नव-उल्लास नहीं लाता
वैसी समृद्धि-सम्पन्नता अब नहीं दिखती
कोपलों और कलियों में यौवन नहीं
फूलों में पहले जैसी खुशबू नहीं रही
इन्द्रधनुषी रंग और छटा तो बिलकुल नहीं.
पता नहीं यह सच है या आभासी मात्र
मौसम अब सचमुच ही बदल गए हैं
या इन वर्षों में मैं ही संवेदनशून्य हुआ हूँ
उसका खोना अपरिहार्य भी तो नहीं था
जड़त्व का शिकार तो आखिर मैं ही था
शायद अब यह नियति का प्रतिकार है.
Image (c) Pinterest
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