सुख-चैन की परवाह किये बिना
एक लम्बा जीवन खपा दिया मैनें
कुछ रिश्तों को निबाहते रहने में
बनाए रखकर, सजाने-संवारने में.
कभी-कभी तो मुझे ऐसा भी लगा है
मानों एक लम्बी और काली सुरंग है
बिना रुके अनवरत दौड़ता रहा हूँ मैं
जीवन की इस अंधी व निर्मम दौड़ में.
किंतु आज जब मुड़कर देखता हूँ
तो मात्र एक अहसास भर होता है…
कुछ रिश्ते कैसे अलस व बेपरवाह
मानों एक जहरीले बिच्छू की भांति
हमेशा ही दँशते रहे हैं काटते रहे हैं.
और बरबस ही एक ख्याल आता है.
क्यों न इन आत्मकेंद्रित रिश्तों को ही
अब खुलकर, टूटने-बिखरने दिया जाय
आखिर झुकने की, संभालते रहने की
एक परिसीमा मेरे लिए भी तो बनती है.
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