प्रतिवर्ष दशानन दहन किया, मन के रावण का नाश नहीं,
अगनित सीता अपहृत होती, निज मर्यादा का भास नहीं।
हम एक जलाते दशकंधर, शत दशकंधर पैदा होते,
करते जो दहन मन का रावण, हर गली में रावण न होते।
इस शक्ति पर्व का हेतु है क्या, है ब्यर्थ दिखावे की शक्ती,
निर्बल को संबल दे न सके, अन्याय से दे न सकेे मुक्ती।
करुणा को समन्वित कर निज में, आधार बना पुरषारथ को,
कर दो सारा जीवन अर्पण, लो लक्ष्य बना परमारथ को।
है नेकी और बदी सबमें, अनुपात भिन्न हो सकता है,
संकल्प भाव यदि मूर्तिमान, संघर्ष कोई कर सकता है।
विद्वान सुभट त्रैलोक्यजयी, आराधक शिव प्रतिभाशाली,
था प्रकृति किया अपने बश में, प्रतिनायक अतुलित बलशाली।
जानकी हरण में ना खपती, जो उसमें अदभुत थी क्षमता,
होता विनाश ना फिर उसका, था अतुलित बल न कोई समता।
विपरीत काल बुद्धि विनाश, शक्ति का हरण वह कर लाया,
हो अहंकारवश मूढ़ महा, मृत्यु आमंत्रण कर आया।
शक्ति की थी साकार मूर्ति, प्रतिरूप भवानी सम सीता,
निश्चित था मृत्यु वरण किया, शक्ति को है किसने जीता।
मर्यादा का कर उल्लंघन, जीने की आश करे मन में,
हो राम विमुख और बैर साध, फिर प्राण रहें कैसे तन में।
राघव प्रतीक हैं लाघव के, हो विमुख राम कल्याण नहीं,
सुर नर मुनि भी यदि हो सहाय, फिर भी प्राणों की त्राण नहीं।
हरि हर की शक्ति है बाणों में, प्राणों की रक्षा करे कौन,
साक्षात ब्रह्म से कर विरोध, जीने की इच्छा करे कौन।
9,057 total views, 5 views today
No Comments
Leave a comment Cancel