पावस की मधुरिम रातों में, प्रिय याद तुम्हारी आयी है,
संस्मरण पुराने जो बिस्मृत, सब संग वो अपने लायी है।
वो मधुर घड़ी, संबन्ध नये, मन वीणा की झंकार नवल,
दो अनजानों का मधुर मिलन, एकात्म आत्मा का पावन।
क्या भूलूॅं और क्या याद करूॅं, हर पृष्ठ अलौकिक है लगता,
रातें लगतीं मधुचन्द्र सरिस, मधुमास सरिस हर दिन लगता।
काया तपते कंचन समान, अलकें घनश्याम घटा लगती,
कटि में किंकणि, पग में नूपुर, उर मुक्ता की माला सजती।
कर में हैं बाजूबंद सजे, ऑंखों बिच काजल का विलास,
माथे पर सिंदूरी बिंदिया, अधरों पर मोहक मधुर हास।
लगती हाला का ज्यों प्याला, मधुशाला की अनुपम कृति हो,
फिर वार न काम करे कैसे, बिचलित ज्यों काम बिरह रति हो।
कटि क्षीण तेरी चंचल चितवन, हैं अधर तेरे मधुकलश भरे,
कुच पुष्ट बांह अहि के समान, मन मंदिर में उल्लास भरे।
अधरों की प्यास बुझा लूॅं मैं, संतृप्त करूॅं मैं निज जीवन,
तन-मन दोनो हों जाये युक्त, मिल जाये यौवन से यौवन।
जीवन की सूनी बगिया में, फिर से बहार अब लौटेगी,
दिल में महकेगा फिर बसंत, चातक की चाह तृप्त होगी,
सूने दिल के दरबार मध्य, फिर सतरंगी होगी उमंग,
जीवन के सूने साजों पर, फिर से गूॅंजेेगी जल तरंग।
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