समय चुप है
अपनी निष्ठुरता लिए
बदल रहा है निरंतर.
तुम समय हो
मेरे समय
जिसने प्यार दिया अनंत
डुबोकर किया एकाकार खुशियों से
अमृत सुख की स्मृतियों से
साँस साँस में चलती अनवरत
सामीप्य की अव्यक्त अनुभूतियों से.
समय मेरा दूर असंबद्ध सा अब
दर्शक सा बन बदल रहा है
सहारे तन के मन के
तुझसे जो बंधे थे अडिग अटूट
आजन्म विश्वास के क्षण क्षण से
विखरित से हो रहे मानो कण कण से.
समय रूक्ष दूर छिटक कर
करता अब निर्बल आहत
तन को मन को अंतरतम को.
समय चुप हटता दूर सिमटता सा
चुप करता जैसे एकाकी-हम को.
यह विकृति है, प्रकृति है
बंधनों से आच्छादित संस्कृति है
या देश कालखंड परिमार्जित अनुकृति है
समय जिसे लादकर हमारे तुम्हारे ऊपर
विरक्ति की अस्वाभाविक प्रवृति में
मुक्ति को निर्दिष्ट नियंत्रित कर
रोकती है उन्मुक्ति को.
समय मेरा चुप है
अबूझ निरपेक्ष सी आकृति पहने
निर्मम दूर आंसुओं से अनभिज्ञ
मर्माहत अस्तित्व की याचना प्रेम प्रार्थना
निशब्द भाषा की स्पंदित आत्मा से
लगता खड़ा है अविचलित स्थितप्रज्ञ.
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