अपने से जो लोग है वो तो करते नहीं कभी कोई बात मुलाकात।
दिन में कोई देख न ले, रात आती है लोगों को सुलाने के बाद।।
धीरे धीरे चुपके चुपके आती है पास, तन्हा अकेले में रात।
चांद रखता है पहरा उसके, आती है उसके ढलने उपरान्त।।
राज दुलारी है पर दासियों को भी, लाती न कभी भी साथ।
खुद का साया भी बेवफ़ा हो, तो कर सकता है विश्वासघात ।।
फिर दासियों का तो छुपा नहीं, किसी सतयुग में भी उत्पात।
तो कालिमा बिखेरे रात आती है, लिए हीये उफनते जज़्बात।।
और फिर जब रात के अंग हिले, हवा हिले, हवा से भी हो आघात।
आंख भौंह के हावभाव से भी डरती, नहीं करती वार्तालाप ।।
आखिर आखर का सहारा लेने, साथ में लाती बंद क़िताब।
आंचल नीचे दबाकर उसको, आखर ज्योति दिखाती बेताब ।।
ऐसे ही मेरी रात से रात में, होती मुलाकात और कटती हर रात।
ऐसा ही तो मैं हूं जन्मा, एकदम ऐसी ही है वो भी जन्मजात।
तड़के पहले उठती है रात, भागती इसके पहले कि हो प्रभात।
अगर सूरज की दृष्टि पड़ गई, यह होगी रुसवाई की वारदात।।
देख उलफ़त की नजाक़त को, शब रोज़ बरतती है एहतियात।
हजारों दिल लिए ख्वाहिशों तरसते उसकी झलक ए लिबास ओ सिफ़ात।।
रहगुजर में हो अंदेशा रोशनी का, तो जुस्तजू करे कोई रबात।
दिलरुबा शब का गोरा रंग काला न करे कोई किरण आफ़ताब।।
रक़ीब जिनसे शब छुपा करती शबो रोज़ है आफ़ताब ओ माहताब।
सोचता हूं रात-दिन मैं ऐसे में कैसे रुख़्सत करूं उसे रात-बिरात।।
पौ फटने के पहले उसकी पायल में भर रुई चले बीच सवालात।
लरज़ती काया डगमगाते पांव रात चले, लाठी ओ टॉर्च मेरे हाथ।।
राह में रहज़न बन छीनते मेरी रात को रकीब माह ओ आफताब।
मैं छीन चांद से चांदनी, चांदनी से बुझाता सूरज, दिखाता आब-ताब।।
ऐसे छोड़ता शबनम से नम मेरी शब को घर ज़ेर पहरे ओ औकात।
न हो मुझ पर एतबार तो करो सितारों ओ हवाओं से तहकीकात।।
शब= रात, जज़्बात= भावनाओं, रुसवाई= बदनामी, उलफ़त= प्रेम, एहतियात= साचचेती, सचेती, चौकसी = सावधानी, नज़ाकत= नाजुकता, कोमलता, लिबास= पहनावा, सिफ़ात= ख़ूबियां, रहगुज़र = मार्ग, जुस्तजू = तलाश, रबात = धर्मशाला, inn, आफ़ताब = सूर्य, रक़ीब = प्रेमिका का प्रतिद्वन्द्वी, माहताब= , माह = चांद, ओ = और, रोज = दिन, रुख़्सत = विदा, लरज़ती = कांपती, रहज़न = लुटेरा,ज़ेर = तहत, अधीन, आब-ताब = जलवा, चमक दमक, शबनम = ओस, एतबार = विश्वास
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