संपादक की पसंद
उसने मुझसे कहा
दूसरों के लिए जीना अब
बहुत हुआ, बहुत हो लिया
अब वह केवल खुद के लिए
खुद की खुशियों के लिए
जीना चाहता है…!
फिर शेष जीवन
वह इस जुनून के साथ,
खुशी की चाहत लिए
खुशी की तलाश में
एक अंधी दौड़ में शामिल
एक लम्बी-अंधी सुरंग में
जिसका न आदि है न अंत
चलता रहा, दौड़ता रहा है…
दौड़ आज भी जारी है।
पर जिस खुशी की खातिर
वह आत्मकेंद्रित होकर
इस-क़दर स्वार्थी बना –
दुनियावी आभासी मायाजाल में
उपभोक्ता संस्कृति का शिकार,
अहंपोषित, विभ्रान्त और गुमराह;
वह खुशी उसे अभी भी मिलनी है
मरुस्थल में एक मृगतृष्णा सी
अरसे से छकाती फिर रही है।
दरअसल उसे आजतक
पता ही नहीं चल पाया, कि
जिस खुशी, सुख या संतोष
को वह वाह्य जगत में
बेचैन ढूंढता फिरता है
वह तो वास्तव में मनुष्य के
खुद के अंदर है अंतर्मन में है
जरूरत है इसे पहचानने की
जीवन के इस अंतिम सत्य को
समझने की, अमल करने की।
10,976 total views, 5 views today
No Comments
Leave a comment Cancel