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हाथी के दाॅंत

एक कहावत है – हाथी के दाॅंत ं ं ं खाने के और दिखाने के और। इसकी शुरूआत कब हुई कह नहीं सकता ं ं ं शायद इसका इतिहास भी मनु-शतरूपा के वंशजों जितना पुराना ही हो। ं ं ं किन्तु इसमें संदेह नहीं है कि इसकी ‘जेनिसिस’ उन महानुभावों को मद्देनजर रखकर ही हुई होगी जो जीवन के हर क्षेत्र में दोहरे मानदण्ड अपनाते है। एक ं ं ं अपने लिए जैसा वह खुद जीते हैं, दूसरा ं ं ं सर्वथा भिन्न ऐसी जीवन शैली ं ं ं जिसे वह औरों पर थोपने की कोशिश करते हैं।

निश्चय ही समाज में ऐसे सज्जनों की कमी नहीं है। सवाल यह है कि बुद्धिमानी ं ं ं ऐसे ही लोगों की भीड़ में शामिल होकर अपना अस्तित्व खो देने में हैं अथवा स्वत्व की रक्षा के लिए आवश्यक हो तो इनसे संघर्ष करके भी अपनी पहचान बनाए रखने में ं ं ं ।

एक बुजुर्गवार सज्जन हैं जो हमारे पड़ोस में ही रहते हैं। सरकारी सेवा से निवृत हुए इन्हें लगभग 7-8 साल हुए हैं। हिन्दू जीवन दर्शन और कर्मकांड में इनकी अगाध आस्था है सो उसके अनुरूप ही अब गृहस्थ रहकर भी एक वीतरागी सन्यासी का जीवन जी रहे हैं।

मुझे उनका निकटतम संबंधी होने का गौरव प्राप्त है। ं ं ं क्योंकि वह मेरी धर्मपत्नी के मायके में एक खास कुटुम्बी के अमुक रिश्तेदार के भतीजे के श्वसुर होते हैं अतः उनका मेरी पत्नी से स्नेह होना स्वाभाविक ही है। मुझे भी उन्होनें कई बार बताया है कि मैं उन्हें पुत्र समान ही प्रिय हूं। हम लोग आदर से उन्हें ‘अंकल’ कहते हैं।

अंकल’ का अधिकांश समय ईश्वर उपासना और वेदान्त परिचर्चा में ही बीतता है। इसके लिए वह हमेशा श्रद्धालुओं की ताक में रहते हैं। युवा, बाल-वृद्ध सब पर उनका समान अनुराग है बस केवल आस्तिक और धैर्यवान श्रोता होना चाहिए।

यह विडम्बना ही है कि उनके अपने पुत्र व पौत्रों में वांछित श्रद्धा या आस्था का प्रायः अभाव सा दिखता है। शायद जीवन की यह फिलाॅसफी ं ं ं कि परलोक की चिंता ब्रह्मचारी और गृहस्थ के लिए अधिक श्रेयस्कर नहीं, उन्हें अच्छी तरह से मालूम है। यह कार्य तो सेवानिवृत्ति के पश्चात जीवन के साठवें दशक में ही अधिक सुविधाजनक और फलदायी है।

इस विषय में अंकल व उनके परिवार के बीच कोई खास मौलिक मतभेद नहीं है ं ं ं यह बात मुझे उनके ही 13 वर्षीय पौत्र से किन्हीं अन्तरंग क्षणों में ज्ञात हुई जो शायद शुरू में अपने पितामह की वेदान्त फिलाॅसफी में कुछ अधिक रुचि ले बैठा था।

आज जीवन-मूल्यों में जो तेजी से गिरावट आयी है उसके लिए अंकल से ज्यादा दुःखी और चिंतित शायद ही कोई हो ं ं ं। वह अक्सर कहते हैं, ‘‘बेटा, इस घोर कलयुग की ही बलिहारी है कि लोगों की धर्म-कर्म से आस्था बिल्कुल उठ रही है। ं ं ं पूरा देश और समाज पतनोन्मुखी हो उठा है ं ं ं। और यह ं ं ं कि मानवता के ‘रसातल’ में पहुॅंचने में बस थोड़ी कसर ही बाकी है।

किन्तु आशा की क्षीण किरण अभी शेष है। सामाजिक चेतना और जन उत्थान संबंधी उनके विचार बड़े मौलिक और चिंतनमय होते हैं।

नैतिकता सदाचार की कुंजी है ं ं ं हर आदमी को ईमानदार व कर्तव्यनिष्ठ होना ही चाहिए ं ं ं मोह-माया का त्याग तो परम आवश्यक है सात्विक खान-पान और आचार-विचार के बिना तो आत्मोन्नति की कल्पना भी व्यर्थ है फिर मांस-मदिरा तो अतिनिकृष्ट त्याज्य पदार्थ हैं।’’ और भी न जाने ऐसी ही कितनी नैतिक बातें ं ं ं।

‘चैरिटी बिगिन्स् एट होम’ का अर्थ उनसे अच्छा शायद ही किसी को आता हो। कथनी और करनी में फर्क न रहे इसीलिए सत्कार्यों की शुरूआत खुद करने में नहीं हिचकते। शायद इसीलिए वह अपने घरेलू नौकर, धोबी, ग्वाले इत्यादि को शीघ्र बदल लेते हैं या खुद उन्हें बदल जाने की प्रेरणा देते हैं ताकि मानव मात्र की सेवा का उनका संकल्प अधिकाधिक पूरा हो सके।

एक अलिखित अनुबन्ध-सा है अंकल और मेरे बीच ं ं ं। शायद उन्होंने मेरा कल्याण करने का भी संकल्प ले रखा है। वेदान्त चर्चा के अतिरिक्त, उनके समाज सेवा और परमार्थ जैसे गूढ़ विषयों पर दिये जाने वाले प्रवचन प्रायः मुझे घंटों सुनने पड़ते हैं। ऐसे मौकों पर आवश्यक ऊर्जा प्राप्त करते रहने के लिए अक्सर चाय के कई दौर चलते हैं। कभी-कभी जब ऊर्जाह्रास अधिक हो जाता है तो बिस्कुट-नमकीन जैसे पदार्थ भी आ जाते हैं।

सुनते हैं अंकल बचपन से ही बहुत मेधावी और कुशाग्रबुद्धि थे। विद्यार्थी जीवन में उन्होंने कक्षा में हर साल उत्तीर्ण होते रहने जैसे ‘रूटीन’ कार्य में कभी अधिक दिलचस्पी नहीं दिखायी। वह अधिकाधिक अनुभव व ज्ञान प्राप्त करने के पक्ष में रहते थे। इसमें समय तो लगता है पर आखिर ठोस आधार भी कोई चीज है। ं ं ं जितनी गहरी नींव होगी उतना मजबूत मकान बनेगा ं ं ं।

जीवन में अंकल बड़े कर्मठ और उद्यमी व्यक्ति रहे। अपनी मेहनत और दूरदृष्टि के रहते उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को कभी शिकायत का मौका नहीं दिया बल्कि उन्हें हमेशा ‘खुश’ रखा। फलस्वरूप उन्हें भी पदोन्नतियां मिलते रहने में कभी बाधा नहीं रही। यूं तो वे खुद बड़े ईमानदार और सादगी पसंद थे किन्तु उन तमाम श्रद्धालुओं का क्या करते जो लाख मना करने पर भी फल-फूल, नजर-नियाज भेंट देने को उत्सुक रहते थे। आखिर जीवन में थोड़ा दुनियादार हुए बिना भी काम नहीं चलता। ं ं ं और फिर अंकल खुद इतने दयालु थे कि वह किसी को मायूस होते भी नहीं देख सकते थे। सो वह यदा-कदा अनिच्छापूर्वक ही लोगों से नजर-नियाज भगवान का प्रसाद समझकर ग्रहण करते थे।

मेरा विचार रहा है कि आदमी को कुछ सीखने के लिए केवल एक लम्बी उम्र और अपने अनुभव ही अपरिहार्य नहीं है बहुत कुछ दूसरों के ज्ञान और अनुभव से भी सीखा जा सकता है। अंकल ने मेरी यह गलतफहमी हमेशा दूर करने का प्रयास किया है। अगर मुझ मूढ़ को कभी सद्बुद्धि आयी तो मैं उनका ही आभार मानंूगा। उन्हें इस बात पर हमेशा गर्व रहा है कि उनके बाल धूप में सफेद नहीं हुए हैं।

अपनी उम्र और अनुभव का वास्ता देकर जीवन में सफल होने के कितने ही गुर वह मुझे बताते रहे हैं। जिन्हें मैं एक जिज्ञासु की भांति पूरी ‘धार्मिक श्रद्धा’ से सिर हिला-हिलाकर सुनता रहा हूं।

अक्सर देखा जाता है सज्जनों की हर मंडली में ‘हंसों के बीच कौआ’ की भांति अपवादस्वरूप एक-दो नास्तिक और अश्रद्धालु मिल जाते हैं। ये लोग न केवल धार्मिक और साधु प्रकृति सज्जनों के वर्तमान का बंटाधार करते हैं बल्कि उनके भूत में भी अनावश्यक दिलचस्पी रखते दिखते हैं। फलस्वरूप सज्जनों के विषय में कई असामयिक और असंगत बातें प्रकाश में आती रहती हैं।

ऐसा ही एक ‘दुष्ट’ अंकल के एक भूतपूर्व मित्र और सहकर्मी का पुत्र है। ं ं ं जिसका कहना है, ‘‘बुजुर्गवार अंकल तो रंगे सियार हैं। ं ं ं इनकी समाजसेवा, भक्तिभाव और वेदान्त दर्शन तो कोरा दिखावा मात्र है जो बुढ़ापे में और प्रबल हो उठा है। ं ं ं अन्यथा जवानी के दिनों में तो यह बड़ी रंगीन तबियत के आदमी थे। मांस-मदिरा ं ं ं इत्यादि से भी इन्हें कोई परहेज न था।’’

अंकल की राय भी इस अश्रद्धालु के प्रति कोई अच्छी नहीं है वह उसे छटा हुआ लोफर ं ं ं इत्यादि समझते हैं। लगता है यह साहब अपनी मंदबुद्धि और हठयोग के रहते अंकल का वेदान्त दर्शन नहीं झेल पाये होंगे ं ं ं इसलिए अनर्गल बातें करते रहते हैं। ठीक ही है अंकल ने भी कोई हर ‘पापी’ को भवसागर पार कराने का ठेका तो ले नहीं रखा है।

पिछले दिनों सुना था कि अंकल की तबियत खराब है। कुछ अतिरिक्त समय न निकाल पाने की मजबूरी तथा कुछ स्वभावगत आलस्य ं ं ं उन्हंे देखने समय पर न जा सका।

उस दिन शाम को जब मैं आफिस से घर लौटा तो पत्नी ने जैसे उलाहना देते हुए कहा, ‘‘तुम्हें तो आफिस के काम-काज के आगे घर-संसार की चिंता भी नहीं रहती। ं ं ं आजकल बेचारे अंकल की तबियत जरा खराब है ं ं ं कम-से-कम एक बार तो जाकर देख आते। ं ं ं आखिर ऐसे में आदमी को अपनों का ही तो सहारा होता है।’’

‘अंकल’ के घर पहॅंुचने पर पता लगा कि उनकी पुरानी बीमारी फिर उभर आयी है। पिछले दिनों एयर कन्डीशनर के खराब हो जाने के कारण उन्हें कठिन गर्मी और धूल-बयार में रात भर बरामदे में सोना पड़ा था और अगली सुबह उन्हें अपनी अन्यथा नियमित ‘मार्निंग वाक’ रद्द करनी पड़ी थी।

दरअसल अंकल परले दर्जे के वहमी हैं और अपने स्वास्थ्य के विषय में बेहद संवेदनशील भी ं ं ं । बहुत पहले उन्हें कभी रक्तचाप की शिकायत हुई थी तब से वह हर सुबह 5-6 मील की पदयात्रा बिना नागा करते आ रहे हैं। उनके फैमिली डाक्टर ने – जो खुद दमे और दिल के मरीज हैं – बताया था कि सुबह की ताजी हवा में घूमना स्वास्थ्य के लिए संजीवनी से भी बढ़कर है। तबसे जब कभी अंकल के इस दैनिक कार्य में बाधा आती है तो रक्तचाप खुद-ब-खुद उभर आता है। फिर वह ‘नार्मल’ तभी होते हैं जब उन्हें पूर्ण विश्वास हो जाय कि संजीवनी समान कई दवाओं और फल-मेवों ने सेहत में हुई क्षति की भरपायी कर दी है।

सो मैंने मोसम्बी का ताजा गिलास अंकल को पकड़ाते हुए ढांढस बंधाया, ‘‘इसे पी जाइये ईश्वर की कृपा से आप शीघ्र ही स्वस्थ हो जाएंगे। वैसे तो मुझे आप इस समय भी एकदम तरोताजा दिख रहे हैं जैसे आपने अपने ‘मार्निंग किट्स’ अभी-अभी उतारे हों।’’

अंकल की व्यथा मेरी सहानुभूति पर भारी पड़ी। वह मेरी इस ‘छोटे मुंह बड़ी बात’ को सुनकर अनसुनी करते हुए कराहे, ‘‘विजय बेटे, जब तक सरकारी नौकरी की जनसेवा में खटता रहा। सेवामुक्त हुआ तो सोचा था चलो झंझट से मुक्ति मिली ं ं ं बाकी दिन शांति से भजन-चिंतन में गुजार दूंगा। मगर देखता हंॅू रोज कुछ न कुछ लगा रहता है। लगता है अब बुढापे में बस दुःख-ही-दुःख उठाना लिखा है।’’

‘जीवेम् शरदः शतम्’ के ‘अंकल’ कितने हिमायती हैं और जीवन से उन्हें कितना मोह है मुझे अच्छी तरह पता था। किन्तु न जाने क्यों उस समय मुझमें सचमुच की करूणा अथवा सहानुभूति का लेशमात्र संचार भी न हुआ। बल्कि मेरे मन में एक अजीब शरारतपूर्ण परिकल्पना कौंधने लगी।

मैंने किंचित विनोदपूर्ण लहजे में कहा, ‘‘अंकल, मुझे तो जीवन में दुःखी या चिंतित होने का कोई कारण नहीं दिखता। आखिर दो ही बातें तो संभव हैं ं ं ं आदमी स्वस्थ होगा या फिर बीमार ं ं ं। आप स्वस्थ होते तो चिंता की क्या बात थी किन्तु इस बीमारी में भी दो बातें संभव हैं। ं ं ं आप रोगमुक्त होकर स्वस्थ हो जायेंगे या फिर सद्गति को प्राप्त होंगे।’’

एक क्षण ‘अंकल’ के चेहरे का तेजी से बदलता रंग देखकर अहसास हुआ कि मेरे इस प्रलाप का उनपर कोई अनुकूल असर नहीं पड़ा है। किन्तु उस समय मैं भी न जाने किस रौ में था कि मेरी वाणी और मुखर हो उठी, ‘‘दूसरी अवस्था में पुनः दो बातें ही संभव हैं। ं ं ं या तो आप स्वर्ग के अधिकारी होंगे या फिर नरक वासी ं ं ं । आप तो साधु पुरूष हैं इसमें जरा भी संदेह नहीं कि स्वर्ग के द्वार आपके लिए खुले होंगे। किन्तु, ईश्वर न करे, आपको नर्क भी जाना पडे़ तो भी क्या चिंता! ं ं ं आखिर धर्मात्मा युधिष्ठिर को भी तो एक कल्प तक नर्क भोगना पड़ा था। वहां तो सारा समय इष्ट मित्रों-रिश्तेदारों का हाल-चाल पूछने में ही चुटकियां में कट जाएगा ं ं ं।

शायद मेरा यह अनर्गल प्रलाप कुछ देर और चलता अगर इसी बीच अंकल की ग्रीवा से निकली सिंह-गर्जना ने मुझे बुरी तरह चैंका न दिया होता। और तब मुझे अहसास हुआ ं ं ं शायद मैंने अनधिकार चेष्टा की थी ं ं ं शायद वर्जित क्षेत्र में प्रवेश करने का महापाप मैं कर चुका था ं ं ं।

अंकल एक बारगी बिफर उठे, ‘‘कल का छोकरा। ं ं ं मुझे बच्चा समझ रखा है ं ं ं। अरे, तेरे पिता भी मेरे बेटों की उमर के होंगे। कहां मैं जिन्दगी और मौत के बीच जूझ रहा हूं और तू है जो मेरा मखौल उड़ाकर ही खुश हो रहा है ं ं ं।’’

चादर के नीचे उनकी साॅंसों का तेजी से उठना-गिरना पक्का सबूत था कि अंकल का क्रोध सारी सीमाएं तोड़ चुका है। किन्तु फिर वह कुछ संयत होकर बोले, ‘‘रमोला (मेरी पत्नी) से मेरा स्नेह है इसी लिए तुमसे भी बात कर लेता था। अब तक मैं तुम्हें सज्जन और शीलवान समझता था किन्तु देखता हूं तुममें और गजानन में कदाचित कोई अंतर नहीं है।’’ 

मैं अवाक् रह गया। गजानन का जिक्र मैं ऊपर कर चुका हूं जिसे अंकल छूटते ही लोफर, मवाली ं ं ं जैसे अलंकरणों से विभूषित करते रहे हैं। बात हाथ से निकल ही चुकी थी ं ं ं अपना सा मंुह लेकर मैं घर लौट आया।

यूं मुझमें संस्कारगत शील और धैर्य की कमी नहीं नहीं है, स्वभाव से भी मैं गम्भीर प्रकृति का ही माना जाता हूं। किन्तु न जाने क्यों उस दिन मुझे इस घटना पर कोई पश्चाताप नहीं हुआ। एक रीतेपन का हल्का सा अहसास जरूर हुआ जैसे कोई घड़ा बॅंूंद-बॅूंद करके भर रहा हो और क्षणिक असावधानीवश छलक जाये।

सोचता हूं आज सतयुग जैसी कोई बात नहीं है जब ऋषियों और तेजस्वी पुरूषों के मुखारबिंदु से निकले शब्द ही यथार्थ बन जाते थे। वरना क्या पता ‘अंकल’ के मुख से क्रोध में निकले वे शब्द मुझे नहुष जैसा शापित कर जाते और मैं भी सर्प जैसी किसी निकृष्ट योनि में पड़ा हुआ अपने उद्धार के लिए पांडव जैसे किन्हीं तेजस्वी वंशजों के इंतजार में हजारों वर्षों तक शाप की अग्नि में जलता रहता।

किन्तु इस कहानी का अंत यह नहीं था। अगले दिन मेरी इस घृष्टता का कच्चा चिठ्ठा ‘मय क्षेपकों सहित’ रमोला को भी मालूम हो चुका था। और अब मैं ‘त्रिशंकु’ की भांति कथित अंकल और अपनी पत्नी के दुर्वासा जैसे क्र्रोध के बीच छटपटाता हुआ सोच रहा हूं कि इस ‘दुविधा’ से उबरने के लिए किस आराध्य देव को प्रसन्न करने का उद्यम करूॅं।

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