Editor’s Choice
जब भी बढा़ओ हाथ तो चुभते हैं सिर्फ़ कांटे
रिश्तों के गुलमोहर पर उगती हैं नागफनियां।
हम चाहें भी तो उनसे मिलना है बहुत मुश्किल
अपनो के इस शहर में कितनी हैं तंग गलियां।
हालत की आंधी मे जज्बात उड़ गये पर
सोई हैं दिल में अब भी बचपन की भोली परियां।
कटती नहीं हैं फिर भी उम्मीद की पतंगें
लंगर लिए हांथों में बैठी है सारी दुनियाँ।
रफ्तार की नदी में हम आज भी हैं जिन्दा
पीछे पडी़ हैं जाने कब से बड़ी मछलियाँ।
कैसे मिलेगा चैन जब कोशिश ही गलत होगी
ढू़ढोगे सुराही में खोई हुई तश्तरियां।
3,711 total views, 3 views today
No Comments
Leave a comment Cancel