भोर होने से प्रथम ही टूटते हैं स्वप्न सारे।
खो रहे हैं नील नभ में शब्द जैसे रात्रि तारे।
पोंछ कर दृग बिंदुओं को सच को सीने में छुपाये-
पतित को पावन बनाने में पराजित अश्रु खारे।
अनछुई इस देह ने स्पर्श के जो जख्म खाये।
तन बदन की वेदना को उर पिटारी में संजोये।
देखती कातर नयन से जो विकृति मन में समाई-
देह की तृष्णा बुझाकर जो अलौकिक शांति पाये।
देह की भूगोल तजकर तुम कभी आगे बढ़े क्या?
देह की सरगम से खेले दिल के तारों को छुआ क्या?
यदि कभी छूते हृदय को तृप्त होते प्रेम से तुम-
मेरी ख्वाहिश का कोई कण सच कहो तुमको मिला क्या?
दृष्टिहंता बन गये जो स्वयं ही निज बेध ऑंखें।
प्रखर अग्नि दावानल की है जलाती वृक्ष शाखें।
शुष्क अधरों पर सजाकर मौन की उजड़ी रंगोली-
प्रश्न करती हैं निरन्तर इस अधर की मौन चीखें|
8,261 total views, 9 views today
No Comments
Leave a comment Cancel