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ये कैसी अंधेरी रात थी 
असह्य लंबे पहरों की 
नशीली सी,
गहन बेसुध सा किया था
जिसके मोहतन्त्र ने.

उनींदी की ऐसी जिंदगी के सफर में 
हम आशा-निराशा के अटूट क्रम में
सहते रहे टूटते-जुडते भ्रम में 
निरंतर पीछा करते हुए से अर्धस्वप्न में  
सुख-चैन, शांति समृद्धि सौहार्द की 
मरीचिका का. 
समय बेशकीमती निकलता गया अपनी रफ्तार में  
और हम कहीं दूर भटक गए षडयंत्री कुचक्र में  
सिर्फ तांत्रिक हाहाकार-कोलाहल लिए हाथ में.

नींद टूटी तब लगा सबेरा पाया 
जागरण यह 
कुछ अलग एहसास लेकर आया 
ठगे, लुटे, भ्रमित से 
मोहपाश से बाहर 
विखरित, अलग-अलग चिन्हों-प्रतीकों में उलझे 
मूक अवाक से फैले-फंसे 
नारों, असंख्य आवाजों की कर्कश ध्वनिपात में. 

अनेकता में एकता की आस लिए 
देश व राष्ट्र के बीच एकार्थ के युद्ध में
नई दृष्टि में नव अर्थ खोजते-खोजते 
भारत को हम ढूंढ रहे हैं. 

हाँ हम भारत को अब ढूंढ रहे हैं 
क्या था वह जिसे  
लूट ले गये खंडित-विखंडित कर 
ठगी, आततायी निर्मम हत्यारे . 
स्वर्णपुष्प था जिसका हर पन्ना 
ग्रंथों की अनगिनत मालाओं में.  
था जिसका हर व्यक्ति स्वतंत्र 
श्रेष्ठ सम्पन्न समृद्ध-मर्यादाओं में. 
वीर पौरुष था यहाँ पुरुषोत्तम 
संगठित शक्तिशाली चारों दिशाओं में. 
खुली हवा थी यहाँ सुगंधित 
वन-उपवन घर-आँगन में. 
बहती थीं नदियां निर्मल जल भर 
कल-कल प्रकृति के हर कोनों में. 

ऊंचे शिखर रच श्रद्धा व सम्मान के  
पूजे जाते थे सूर्य-चंद्र-तारे आकाश के 
वृक्ष,पाषाण, मिट्टी के कण-कण धरती के.  
बहती जल धाराएं जहाँ सँजोयी जाती घर-घर 
पवित्र गंगा यमुना नर्मदा के नाम से. 

पर्वत शिखर पर मंदिरों में बैठे 
देव-विग्रह दर्शन की आराध्य यात्राएं 
जहां उत्सव-उत्सव में होती थी सम्पन्न. 
खेतों-खलिहानों में उमड़ी हरियाली 
भरती जैसे ग्रामीणों में विश्वबांधुत्व.

भुला दिया हमने उपेक्षा-उपेक्षा में 
बहुमूल्य सर्वश्रेष्ठ अपना था जो ज्ञान
हम बहुत-बहुत आगे थे उससे 
जिसे आज कहते हैं आधुनिक विज्ञान. 
चलो अब लौट चलें 
अपने भारत को हम ढूंढ लें 
अपने भारत को हम पा लें.

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