जीवन भर रहा सफर में मंजिल न हाथ में आयी,
जीवन-असीम अम्बर में न चाॅंद पड़ा दिखलाई।
संसार वृक्ष उपवन में आयी न कभी तरुणाई,
अधखिली कुसुम की कलियाॅं न फूल कभी बन पाई।
दुख-भग्न हृदय अंतर में तारों की स्वर लहरी हो,
सूने मन के ऑंगन में न खुशी कभी ठहरी हो।
करुणा सिंचित उपवन में क्या पुष्प नेह खिल पाये
मरु सम असीम अंबर में शीतल घन कभी न छाए।
भीतर-भीतर रोने से तम-सरिता है उफनाई।
अधखिली कुसुम की कलियाॅं न फूल कभी बन पाई।
सुख-दुख के दिव्य मिलन से न बना प्रयाग हृदय में,
अन्तस्तल के छालों का बहता है नीर निलय में।
निर्वाण करूँ क्या लेकर है नहीं कामना मेरी,
उर व्यथित दर्श बिन व्याकुल मैं ठहरा प्रेम-पुजारी।
स्मृतियाँ गत जीवन की क्यों मुझे सताने आयी?
अधखिली कुसुम की कलियाॅं न फूल कभी बन पाई।
स्पन्दन हीन हृदय में व्याकुल वेदना बिलखती,
युग्मन की प्रत्याशा में दर-दर है ठोकर खाती।
इस विरह अग्नि ज्वाला में कब तक मैं जलूँ अकेला,
चल पड़ूं अनंत सफर पर जग का तज निखिल झमेला।
जलती मशाल जीवन की अब है बुझने को आयी।
अधखिली कुसुम की कलियाॅं न फूल कभी बन पाई।
Image (c) Prof. HB Singh
5,625 total views, 1 views today
No Comments
Leave a comment Cancel