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ज्यों-ज्यों बूड़ो श्याम रंग

                                  

   बसन्त विहार कालोनी की परंपरानुसार इस बार होली समारोह का रंगारंग क्रार्यक्रम कुमार साहब के घर होना था।  पिछले साल मिस्टर कपूर के घर की होली की दहशत अभी भी कालोनी के भुक्त भोगियों पर तारी थी।  अतः इस बार पहले से ही तय हो चुका था कि होली खेलने के बाद जलपान का प्रबन्ध  तो पूर्ववत् ही रहेगा, लेकिन भंग का प्रयोग पूरी तरह से वर्जित होगा।  पिछली बार श्रीमती कपूर ने ठन्डाई में भंग की मात्रा शरारतन थोड़ी अच्छी कर दी थी।  लिहाजा उस दिन सभी का बिना टिकट अच्छा-खासा मनोरंजन हो गया था।  लेकिन जिन लोगों की दुर्दशा हुई थी उन लोगों ने आगे से भंग के प्रयोग को निषिद् करार दे दिया।

बहरहाल भंग की पाबन्दियों के साथ ही होली का दिन भी आ पहुंचा। फागुनी बयार बहते ही बसन्त-विहार कालोनी रंगों से नहाने लगी।  पूर्व कार्यक्रम के अनुसार कालोनी के तथाकथित सभ्रांत जोड़े अपनी-अपनी पिचकारियां और रंग सम्हाले कुमार साहब के लम्बे चैड़े अहाते में प्रवेश करने लगे।  पुरूष वर्ग सफेद कुर्ते पायजामे और टोपी में, महिलायें भी अधिकतर सफेद और हल्के रंगों की पोशाकों में।  रंग खेलने का मजा तो सफेद कपड़ों में ही है।  ऐसी कामरिया कंबल से क्या फायदा जिस पर दूजा रंग ही न चढ़ सके।

कुमार साहब के बगीचे के बीचों-बीच बना छोटा सा कृत्रिम पान्ड आज गहरे बैगनी रंग के पानी से लबालब भरा था।  प्रत्येक आगन्तुक को सबसे पहले उसी आग के दरिया से डूब कर निकलना पड़ता था।  होली तो विशुद् रूप से समाजवादी पर्व है। यहां कोई बड़ा नहीं, कोई छोटा नहीं, कोई ऊंच नही कोई नीच नही, सब एक ही माटी के भांडे हैं, अतः सब पर रंग भी एक सा ही चढ़ना चाहिये।  लिहाजा सर से पांव तक गहरे बैंगनी रंग से सराबोर सारे नर-नारी किसी काजल की कोठरी से निकले सयाने से जान पड़ते थे।  रही सही कसर कुमार साहब के बम्बई वाले साले साहब ने पूरी कर दी।  दोनो हाथों से चमकीले काले रंग का पेन्ट लेकर सबके मुख पर कालिख पोत कर अपने साले होने का फायदा उठा रहे थे।  श्रीमती कियलू  को अपने गोरे और संगमरमरी गालों की दुर्दशा किसी कीमत पर गंवारा नही थी।  लेकिन होली के दिन तो भई बुरा मानने का प्रश्न ही नहीं उठता।  और फिर नहीं-नहीं करने वालों को तो शायद भगवान भी नहीं बचा सकते।  फिर क्या था क्या गोरी क्या सांवरी सब भई एक समान।

घन्टे-डेढ़ घन्टे तक रंगों का खेल खेलने के बाद श्रीमती कुमार ने ताली बजा कर सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। – श्भई अब चल कर थोड़ी चाय-पानी हो जाये।श

दूध से जली हुई भीड़ ने एक बार फिर फंूक मारते हुये अपना संशय प्रकट किया – श्भई देखिये भंग-वंग का चक्कर हो तो…

–  अरे नहीं भाई नहीं, क्या उस बार हमारी कुछ कम दुर्दशा हुई थी ।  पत्नी की तरफ सहमी नजरों से देखते हुये कुमार साहब फुसफुसाये।

पिछली होली के घाव अभी तक हरे ही थे।  भंग की पिनक में उन्होंने अपनी छमक-छल्लो ष्कामवाली की कमर पर हाथ क्या रख दिया था कि आज तक घर के बर्तन धोते-धोते उनकी कमर टूटी जा रही है।  वह दिन और आज का दिन।  श्रीमती कुमार ने कोई कमसिन नौकरानी तो दूर किसी बूढ़ी खूसट को भी काम पर नहीं रखा।  कुमार साहब के आशिकाना मिजाज का भूत झाड़ना उन्हें अच्छी तरह आता था।

इतनी देर की मेहनत मशक्कत के बाद सबको भूख तो लग ही गई थी।  वैसे भी श्रीमती कुमार अपने आपको किसी व्यंजन विशेषज्ञा से कम नहीं मानती।  महिलाओं की तमाम पत्रिकाओं और टी0वी0 में देख कर आये दिन कोई न कोई प्रयोग करती ही रहती हैं।  यह बात दीगार है कि वे बनाना क्या चाहती हैं और बन क्या जाता है यह वे खुद भी नहीं समझ पाती हैं।  बस जो कुछ भी बन जाता है उसे एक अच्छा सा अंग्रेजी नाम देकर मेज पर सजाने की प्रक्रिया में वे काफी माहिर हैं।  उनके बड़े से डायनिंग हाल के बीच में लगी लम्बी सी डायनिंग टेबिल पर तरह-तरह के रंग-बिरंगे व्यंजन सजे हुये थे।  अतिथिगण मेज पर से प्लेटों में खाद्य सामग्रियां लेकर किनारे पर सजी कुर्सियों पर अपने-अपने जोड़ों के साथ बिराज रहे थे।

इस तरफ बिछी कुर्सियों पर सबसे किनारे चोपड़ा साहब थे।  प्लेट में से किसी ढोकला नुमा व्यंजन को मुंह में डालते ही उनका मंुह बन गया।  बगल में बैठी अपनी श्रीमती जी को कोंचते हुये बोले – श् यह क्या सड़े मðे जैसी बदबूदार चीज है, मेरी तो जबान ही खराब हो गई। श्  श् क्या ? क्या कहा आपने ? मैने इतनी मेहनत से सब बनाया है और आप कह रहे हैं कि सड़ा मðा है —।  श्अरर्र्र्े क्या गड़बड़ हो गई। मिस्टर चोपड़ा तो जैसे आसमान से गिरे।  अपनी बगल में बैठी जिस देवी को वे अपनी श्रीमती समझ रहे थे वे तो साक्षात श्रीमती कुमार निकलीं।  सत्यानाश हो इस रंग का । उन्हें कोई पतली गली नजर नहीं आ रही थी जिधर से जाकर वे अपनी श्रीमती जी को ढूंढते।  उस लंका मंे उन्हें सब उन्चास हाथ के ही दिख रहे थे।

गुस्से से लाल-पीली होते हुये श्रीमती कुमार ने अपनी दूसरी तरफ बैठे अपने पति की कमर में चुटकी काटते हुये कहा – श्देख रहे हैं मिस्टर चोपड़ा की बदतमीजी । मेरे स्पेशल ढोकले को बदबूदार सड़ा हुआ बता रहे हैं।श

– श्पता नहीं अभी तो मैं इस कोयले नुमा केक पर ही अटका हूं।  न उगलते बनता है न निगलते। आनन्द साहब भुने बैगन सा मुंह बना कर बोले।

ओह गाॅड यह क्या? श्रीमती कुमार रूआसी हो उठीं।  तो उनकी बगल में उनके पति नहीं आनन्द साहब बैठे हैं।  और उन्होंने चेहरे का रंग पोंछने के बहाने आंचल से अपने आंसू पोछ लिये।

उधर आनन्द साहब ने अपनी बगल में बैठी रसवन्ती के कानों में फुसफुसाकर कहा –  सुबह तुमने जारमें मेरी पुरानी बत्तीसी रख दी थी क्या ? जरा सी यह मठरी क्या काटी कि दांत मसूड़ों से छूट कर बाहर हुये जा रहे हैं —मैं पूछता हूं कि मेरे नये वाले दांतों के सेट का क्या हुआ?

ओ मां आनन्द बाबू आप के दांत आर्टीफिशियल हैं । बगल में बैठी श्रीमती मुखर्जी आश्चर्य से चहकीं।  बड़ी-बड़ी कजरारी आंखों वाली ष्कनक छटा सी कामिनी  श्रीमती मुखर्जी पचास को पार करते हुये मिस्टर मुखर्जी की दूसरी पत्नी हैं।  यों तो बसन्त-विहार के सारे पत्नी भक्त नारद इस लक्ष्मी की बांकी चितवन की माला पहनने को अपनी-अपनी गर्दन उचकाये घूमते रहते हैं, किन्तु श्रीमती मुखर्जी मन ही मन आनन्द साहब की ही मैन वाली डैशिंग छवि पर फिदा थीं।  आनन्द साहब भी अपनी बढ़ती हुई तोंद को जी जान से अन्दर की तरफ खीचें, बालों में खिजाब लगाये दिन में एक बार जरूर मुखर्जी बाबू के पास कोई न कोई किताब मांगने पहुंच ही जाते थे।  बेचारे मुखर्जी बाबू तो अपने गुन के गाहक के लिये अल्मारी में झुके-झुके किताबें ढूंढ़ते रहते आहैर उधर उनकी छप्पन छुरी के सारे वार आड़े-तिरछे होकर झेलते हुये आनन्द साहब बिछे बिछे जाते।

श्रीमती मुखर्जी अपनी आश्चर्य मिश्रित गुदगुदी को किसी तरह सम्हाल नहीं पा रही थीं। मौका पाते ही बगल में बैठे पति के कान से मुंह सटा कर फुसफुसाई – एई शूनचो तूमी, आनन्द बाबू के दांत आर्टीफीशियल हैं।  मैं तो नाहक अपनी एक आंख पत्थर की होने की वजह से लोगों से आंखे चुराती फिर रही थी।  लेकिन यहां तो… क्या – – क्या कहा मिसिज मुखर्जी आपकी एक आंख पत्थर की है? यह मैं क्या सुन रहा हूं ? कुमार साहब आंखे फाड़-फाड़ कर उस प्रस्तर नयनी की आंखों में झांकते हुये बोले।  इधर श्रीमती मुखर्जी की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा।  और उधर कुमार साहब  के मन में रोशनी की पिचकारियां छूटने लगीं।

पिछले दो तीन सालों में न जाने कितनी बार उनका दिल श्रीमती मुखर्जी की लम्बी सियाह जुल्फों में उलझा लेकिन हर बार उन्हें अपने सिर पर अटके हुये विग ने उन्हें ष्क्लीन बोल्ड कर यथास्थान वापस आने पर मजबूर कर दिया।  लेकिन अब तो राम ने ही जोड़ी मिलाने का सिग्नल दे दिया है।

अपनी दूसरी तरफ बैठी महिला को पहचान न पाने के बावजूद वे आश्वस्त थे कि वे भद्र महिला चाहे कोई भी हो, उनकी अपनी पत्नी तो नहीं हो सकती।  वर्ना मजाल थी कि उनकी बगल में बैठ कर वे किसी अन्य षोडषी की आंखों में आखें डाल सकते थे।

मौके और दस्तूर का फायदा उठाने से भला कुमार साहब कब चूकने वाले थे।  बकौल शायर वे एक बार फिर श्रीमती मुखर्जी की आंखों के पथरीले जंगल में राह भूलने की कोशिश कर ही रहे थे कि न जाने किस कोने से श्रीमती कुमार किसी रेल सी गुजरती हुई डायनिंग हाॅल के बीचो-बीच खड़ी हो गई और हमारे कुमार साहब पुल से थरथराते रह गये। 

श्रीमती कुमार के मंच पर आते ही अन्य सारे रंग सियार गण अपने-अपने स्थान पर उठ कर खड़े हो गये। होली के इस रंग ने करीब-करीब सबका रंग उतार दिया था।  कुमार साहब भी मेजबान का कर्तव्य निभाने अपनी पत्नी के पास जा खड़े हुये।  इतनी देर बाद अपने खोये हुये पति को पाकर श्रीमती कुमार के सब्र का बांध टूट कर उनकी आंखों से वह निकला।  घायल की गति घायल कुमार साहब ने बाखूबी जान ली।  अतः पत्नी की बेबस मुद्रा देखकर मेहमानों की विदाई समारोह की वागडोर अपने हाथ में लेते हुये उन्होंने दो शब्द कहना ही उचित समझा ।

– आशा है कि इस बार की होली में आपको पूरा आनन्द आया होगा।  आज के रंग की एक विशेषता थी कि जो जितना ही इस रंग में डूबा उतना ही अधिक निखर गया । ३ण्अंत में अपने मित्रों से प्रार्थना है मेरी। घर जाने से पहले अपने-अपने ष्कोड वड्र्सष् के द्वारा अपनी-अपनी पत्नियों को पहचान कर ही घर ले जाइयेगा । हालांकि हमारी शुभ-कामनायें आपके साथ हैं।

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