मानवीय रिश्ते चाहे वह आनुवंशिक हों अथवा मित्रता के बहुत संवेदनशील होते हैं जिन्हें अच्छा और मजबूत बनाए रखने के लिए लगातार सकारात्मक सोच एवं पहल के साथ-साथ परस्पर विश्वास की आवश्यकता बनी रहती है। इसके ठीक विपरीत जो लोग निजी स्वार्थ और आत्मकेन्द्रित रहकर रिश्ते निभाने का प्रयास करते हैं उन्हें अक्सर असफलता एवं निराशा मिलती है और वह खुद भी विवादों के घेरे में बने रहते हैं।
लम्बे सामुदायिक जीवन और सोशल मीडिया के अनुभवों से मैंने यही सीखा है कि हममें से बहुसंख्यक लोग किसी भी तरह के अनावश्यक विवादों में पड़ना अथवा इसमें संलग्न पक्षों में से किसी एक का पक्ष लेना सामान्यत: पसंद नहीं करते।
हम सभी खुश रहना चाहते हैं इसके बावजूद कुछ लोग जल्दी-जल्दी नाखुश अथवा दुखी होते हैं विवादों में घिरे रहते हैं, सवाल उठता है आखिर ऐसा क्यों होता है? यदि ध्यान से देखें तो इसका उत्तर बहुत आसान है। जो खुशी (आत्मसंतोष पर आधारित) हमारे अंदर ही है प्राय: हम उसे दुनियावी रिश्तों में तलाशते हैं जहाँ पहले से ही लोगों की अपनी खुद की आवश्यकताएं हैं अपनी प्राथमिकताएं और समीकरण हैं। यदि हमने कुछ अच्छा या संतोषजनक हासिल किया है तो हममें से अधिकांश लोग जरूरी समझते हैं कि अपने रिश्तों के बीच इसकी भरपूर पब्लिसिटी की जाय। जाहिर है यदि इसे मनचाहा और प्रचुर मात्रा में लोगों द्वारा पसंद किया जाता है, तो हमें खुशी होती है पर साथ ही जिनसे सकारात्मक पहल अथवा प्रतिक्रिया नहीं मिलती उनके प्रति एक नकारात्मक राय भी बनती है, कारण चाहे जो भी हों…इसका समयांतर में नाखुशी या दुख का कारण बनना स्वाभाविक है।
देखा जाय तो क्या यह काफी नहीं है कि यदि हमें लगता है हममें कोई गुण है अथवा हमने कुछ अच्छा किया है तो इस सच का अहसास मात्र ही हमारी वास्तविक खुशी का कारण बने? रही वाह्य जगत की बात, तो जो लोग हमारे बहुत नजदीक हैं जिनके प्रति हमारी निष्ठा किन्हीं संदेहों और सवालों से परे है, उनसे हमें अवश्य साझा करना चाहिए। यदि आप इतना काफी नहीं समझते हैं तो इस सब से अलग आज के युग में कई प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया जैसे अवैयक्तिक प्लेटफार्म भी हैं जहां हमारे किसी गुण अथवा अच्छे काम के तमाम सच्चे प्रशंसक मिल सकते हैं।
सामान्यत: रिश्तों का खराब होना अथवा परिहार्य वाद-विवाद के पीछे मनुष्य की अपनी गलतफहमी, स्वभावगत मूर्खता अथवा व्यक्तिगत स्वार्थ होते हैं और संबंधित व्यक्तितियों के अहंकार, क्रोध, ईर्ष्या जैसे नकारात्मक गुण इसका मूल कारण बनते हैं। इन अवगुणों का शिकार व्यक्ति प्राय: हीन-भावना से भी ग्रस्त रहता है, पर इस सब के बावजूद इसे स्वीकार नहीं करता और प्राय: दूसरों को ही दोष देता रहता है। यह लगभग कुछ उसी तरह है कि रोज सुबह उठकर गूगल से कापी-पेस्ट करके दूसरों को नसीहत दें किन्तु उसी नसीहत का खुद के जीवन में लेशमात्र भी पालन न करें और न ही इसके लिए कोई सार्थक प्रयास करें।
इनमें से केवल गलतफहमी के कारण उत्पन्न विवादों और खराब हो रहे रिश्तों का सुधार संभव है जबकि मूर्खता और स्वार्थ का कोई ज्ञात सटीक समाधान नहीं है। इन पर आधारित रिश्तों को आप ढोते रह सकते हैं किन्तु उनसे सच्ची खुशी या सुख की कामना एक मृगतृष्णा के समान ही होती है।
यहां यह भी महत्वपूर्ण और ध्यान देने योग्य है कि वाद-विवाद बढ़ाने या सुलझाने के लिए किसी सार्वजनिक माध्यम (जैसे व्हाट्सऐप ग्रुप अथवा भिन्न-भिन्न विचारधाराओं के लोगों का समूह) का इस्तेमाल किसी भी हालत में श्रेयस्कर नहीं होता है। इसी तरह एक शिक्षित एवं समझदार व्यक्ति को “पीड़ित कार्ड” (victim card) खेलने से भी बचना चाहिए और प्रयास होना चाहिए और किसी से अपने मतभेद या शिकायतें सीधे संवाद (one-to-one dialogue) से ही सुलझाने का प्रयास हो। शायद इसी के मद्देनजर ‘गंदे लिनेन को सार्वजनिक रूप से धोना (washing dirty linen in public)’ जैसी कहावत बनी थी। दीर्घकालिक रिश्ते तो केवल परस्पर विश्वास, स्वीकार्यता और सहिष्णुता पर ही आधारित हो सकते हैं।
किन्तु यदि यह सब संभव ही न हो तो गीतकार साहिर लुधियानवी का यह शेर / लाइनें –
वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन,
उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा.
…मान लेना ही समयोचित लगता है।
किन्तु इसमें मैं केवल थोड़ा और संशोधन करना चाहूंगा, वह यह कि प्राय: देखा जाता है कि “खूबसूरत मोड़” देने जैसी समझदारी समाज में बहुत कम लोगों में होती है अत: ऐसे बिगड़े रिश्तों को खूबसूरती – बदसूरती की चिन्ता किए बिना ही त्याग देना उचित है।
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