My Humming Word

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एक और देवदास

शालिनी और रिचा हमेशा की तरह मुझे छोड़ने स्टेशन तक आये थे। जब भी मैं किसी लम्बे सरकारी दौरे पर बाहर जाता हूं वर्षों से यह दोनों बिना किसी अपवाद के मुझे ‘सी आफ’ करने आते रहे हैं। करीब आठ साल पहले डेपुटेशन पर दिल्ली आना हुआ था तब से यहीं का होकर रह गया। .. छोटी सी गृहस्थी, …हमें जीवन का हर सुख-संतोष मिला है। जिन्दगी में कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा … सफलता और सुख की सीढ़ियां चढ़ते हुये प्रौढ़ावस्था की ओर … कुछ भी ऐसा नहीं जिसके लिए ‘रिग्रेट’ हो।

गाड़ी ने ठीक समय पर स्टेशन छोड़ा। प्लेटफार्म से धीरे-धीरे सरकती हुई राजधानी ने शीघ्र ही पूरी रफ्तार पकड़ ली। थोड़ी देर में शाम का धुंधलका घिरने लगा था। थरमस से काफी लेने के बाद आंखें बन्द करके कुछ सोचने ही लगा था कि गाड़ी हिचकोले खाकर रूक गई। वातानुकूलित डिब्बे का बाहरी दुनिया से वैसे भी संपर्क कटा सा होता है, जिज्ञासावश केबिन से बाहर निकल आया। काॅरीडोर बिलकुल शांत था। अटेन्डैंट को अपनी सीट पर न पाकर कम्पार्टमेंट से बाहर निकल आया।

यह कोई छोटा गुमनाम सा स्टेशन था। अधिकांश यात्री बाहर निकलकर छोटे-छोटे समूहों में इस अप्रत्याशित बाधा पर टीका-टिप्पणी कर रहे थे। एक रेल कर्मचारी से ज्ञात हुआ कि आगे गंगापुर सिटी के पास किसी मालगाड़ी का ‘डिरेलमेंट’ हो गया है। …जब तक रास्ता अवरूद्ध रहेगा, टेªन का चलना नामुमकिन ही है। … हो सकता है रात यहीं गुजारनी पडे़।

छोटे से प्लेटफार्म पर हर तरफ गहमागहमी थी। चाय और खोमचेवालों की मानों बन आयी थी। कुछ ही देर में बोरियत होने लगी …सोचा क्यों न प्लेटफार्म का एक चक्कर ही लगा लिया जाए। टहलते-टहलते एक बुक स्टाल देखकर अनायास ही पैर ठिठक गये, छोटी सी दुकान में अधिकांशतः सस्ते किस्म के नाॅवेल, फिल्मी पत्रिकाएं और बच्चों के लिए कामिक्स थीं। समय काटने के लिए उन्हीं में से एक-दो पत्रिकाएं उठा लीं ।

पैसे देने के बाद मेरा ध्यान उस इकलौते व्यक्ति की ओर आकर्षित हुआ जो स्टाल पर पहले से ही खड़ा किसी पत्रिका के पन्नों में खोया था। वह एक इकहरे बदन और गेहुंए रंग का आदमी था। शरीर पर बिना क्रीज के किन्तु बढ़िया कपडे़ थे। घनी खिचड़ी दाढ़ी और आंखों पर गहरा काला चश्मा … कुल मिलाकर पहली नजर में वह एक रहस्यमय व्यक्ति लगा।

इसी आदमी को कहीं और देखा होता तो शायद बिल्कुल ध्यान न देता। …किन्तु वह क्षुब्ध माहौल और गहराती संध्या की क्षीण रोशनी … अनायास ही ध्यान उस पर केंद्रित हो गया । लगा …इसे पहले कहीं देखा जरूर है।

मई का महीना, गर्मी और लू के मारे बुरा हाल … शायद संयोगवश ही वह चश्मा उतार कर माथे का पसीना पोंछने लगा। अरे …!? नहीं !!? जेहन में मानों सैकड़ों घंटियां बज उठी हो। यादों से धुंध के साये छटने लगे। लखनऊ यूनिवर्सिटी छोड़े एक अरसा हो चुका था … इतने सालों में तो क्या कुछ नहीं बदल जाता है। किन्तु नहीं! यह चेहरा तो मैं लाखों की भीड़ में भी पहचान सकता हूं। … पर कहां वह सौम्य और सुदर्शन व्यक्तित्व कहां यह भावहीन सपाट चेहरा … गुजरे हुए जमाने की एक-एक घटना मानों चलचित्र की भांति मानस पटल पर उभरने लगीं।

(2)

करीब पचीस साल पहले सिविल सेवा ज्वाइन करके पहली पोस्टिंग पर सिलीगुड़ी गया। इसके बाद हालात कुछ ऐसे बदले कि दुबारा लखनऊ आना ही नहीं हुआ। पिताजी पहले ही रिटायर होकर भोपाल में बस गये थे। अविनाश और उसके परिवार के सिवाय वहां मेरा वैसे भी कोई विशेष संपर्क सूत्र नहीं था। शुरू-शुरू में उसको दो-तीन पत्र डाले… बाद में शादी का कार्ड भी भेजा था किन्तु उसका कोई पता नहीं चला। अपनी शादी में उसकी अनुपस्थिति बहुत खली थी। धीरे-धीरे गृहस्थी और नौकरी के जंजाल में ऐसा उलझाा कि पुराने संगी-साथी और उनके साथ बिताए पल मानों सपना बन कर रह गये।

हां… यह अविनाश ही था जो कभी मेरा सबसे अंतरंग सबसे प्यारा दोस्त रहा था और साथ छूटने के बाद मेरी यादों की शायद सबसे बहुमूल्य धरोहर भी। वह एक संपन्न परिवार का इकलौता लड़का था। पापा एक मशहूर डाक्टर और मम्मी एक घरेलू संस्कारी महिला थीं। बी.एससी. हमने साथ-साथ की थी। फिर उसने फिलाॅसफी में एम. ए. ज्वाइन कर लिया जब कि मैं विज्ञान का विद्यार्थी ही रहा। …. पर इससे हमारी दोस्ती पर कोई असर नहीं पड़ा था। क्लास के बाद बिना नागा शामें साथ गुजारना, साथ-साथ ‘गंजिंग’ करना, चैक की मशहूर ठंडाई और लस्सी बदस्तूर जारी रहे थे।

उन्हीं दिनों उसके जीवन में अनुराधा आयी। क्लास में पहली नजर में ही, अनुराधा ने उसके दिल पर अमिट छाप छोड़ी थी। अविनाश शुरू से बहुत संकोची, भावुक और शर्मीला था। करीब साल भर तक साथ-साथ पढ़ते हुए हृदय स्थल में अंकुरित स्नेह के कल्पनावृक्ष को बढ़ता देखकर ही वह संतुष्ट रहा। ऐसा भी नहीं कि अनुराधा उसकी तरफ से बिलकुल बेखबर रही हो। क्लास में बैठे-बैठे जब कभी अविनाश की नजरें उससे मिलतीं तो लगता मानों भक्त की उपासना से संतुष्ट देवी के वरद हस्त उठे हुए हैं।

अविनाश अक्सर जानबूझकर क्लास गोल कर जाता ताकि नोट्स के बहाने अनुराधा से बात करने का मौका मिले। वह स्वभाव से शांत और गम्भीर लड़की थी। अविनाश की भावनाओं से वह अपरिचित नहीं थी किन्तु प्रकट में वह तटस्थ दिखने का यत्न करती।

समय यूं ही धीरे-धीरे गुजरता रहा। वह शायद फरवरी का महीना था, फाइनल ईयर होने के कारण मेरी व्यस्ततायें बढ़ गईं थीं। कई-कई दिन तक अविनाश से मिलना नहीं होता था। एक दिन शाम को किसी आवश्यक काम से मैं हजरतगंज गया था। …अचानक अविनाश और अनुराधा को साथ-साथ ‘मेफेयर’ की सीढ़ियां उतरते देखकर सुखद आश्चर्य हुआ, अविनाश जैसा ‘बुद्धू’ किसी लड़की का हाथ थाम सकता है यह बात मेरे लिए किसी सातवें आश्चर्य से कम नहीं थी। उसने झेंपकर कटने की कोशिश की किन्तु मैं उसे आसानी से कहां छोड़ने वाला था। वहीं अविनाश ने अनुराधा से पहली बार मेरा परिचय कराया था – ‘‘अनु. यह है विजय, मेरा सबसे अन्तरंग दोस्त, … यूं समझो हम दो जिस्म एक जान हैं मेरी कोई बात इससे छुपी नहीं।’’

आखिर पत्थर में घास उगी । मैंने उन दोनों को उसी समय ‘क्वालिटी’ में ले जाकर ट्रीट दी थी। अविनाश तो छुपा रूस्तम निकला, मैं ‘भोंदू’ ही रहा !? कब अविनाश और अनुराधा करीब आये ? कैसे प्यार परवान चढ़ा ? … मुझे सुराग तक नहीं मिला। उन दिनों अविनाश एक अलग कल्पनाशील इन्द्रधनुषी संसार में रहने लगा था।

(3)

समय धीरे-धीरे खिसकता रहा। देखते-देखते दो साल औेर बीत गये। अनुराधा ने रिसर्च ज्वाइन कर ली थी और अविनाश ने पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में डिप्लोमा। उसका आई.ए.एस. बनने का सपना था। प्रेम का शुरूआती ज्वार अब शांत स्थिर झील बन चुका था। दोनों ही भविष्य को लेकर अकसर चिंतित रहने लगे थे। अनुराधा के मम्मी-पापा उसके लिए रिश्ते की तलाश में थे। एक तो विजातीय होने की अड़चन फिर अविनाश के कैरियर की अनिश्चितता … दोनों को आशंका थी कि उनके संबंधों को सामाजिक मान्यता मिलनी मुश्किल है। इसीलिए अभी तक उन्होंने अपनी चाहत को सबसे छुपाकर रखा था ।

उन्हीं दिनों एक बार अनुराधा के लगातार सात-आठ दिन तक यूनिवर्सिटी न आने पर अविनाश खुद पर नियंत्रण नहीं रख सका और उसके घर पहंुच गया। एक मित्र का औपचारिक आगमन अथवा एक विरही की आकुलता … अनुराधा के मम्मी पापा की अनुभवी आंखों के लिए इसमें फर्क करना कोई कठिन काम न था। इस घटना के बाद अनुराधा के बाहर आने-जाने पर अकसर अंकुश रहने लगा। इससे दोनों के बीच एक अनकहा किन्तु नैराश्यपूर्ण तनाव रहने लगा था। मैं इस सबका एकमात्र साक्षी था अतः उनकी परेशानी और भविष्य की अनिश्चितता मुझे गहराई तक आन्दोलित करते थे।

इसी बीच सिविल सेवा में चयन हो जाने के कारण रिसर्च बीच में छोड़कर मुझे टेªनिंग के लिए मंसूरी जाना पड़ा। शुरू में अविनाश के पत्र आते रहे जिनमें उसकी निराशा एवं अनिश्चय साफ झलकते थे। बाद में धीरे-धीरे पत्रों का अंतराल बढ़ा और फिर हमारे बीच यह संपर्क-सूत्र भी टूट गया। वैसे भी मेरी जिन्दगी का वह दौर बड़ा तूफानी रहा … उन दिनों शायद स्वार्थपरता की हद तक मैं आत्मकेंद्रित और अपनी उपलब्धियों से रोमांचित रहा। फिर भी …अविनाश का क्या हुआ, इसकी जिज्ञासा बनी रही… साथ ही उसके किसी काम न आ सकने का अहसास भी बरसों तक मुझे सालता रहा।

(4)

… मेरे विचारों का तांता टूटा। आज इतने वर्षों बाद अविनाश फिर मेरे सामने था। कई क्षणों तक हम किंकर्तव्यविमूढ़ खड़े रहे। फिर संभलते ही मैं दौड़कर उसके गले लग गया।

मैं उसे आग्रहपूर्वक अपने केबिन में खींच लाया हूं। …कितनी ही जिज्ञासाएं – कितने ही अनुत्तरित सवाल …? थोड़ा सामान्य होने के बाद और मेरे बार-बार आग्रह करने पर अविनाश ने जीवन की शेष गाथा यूं पूरी की …।

‘‘तुम तो जानते ही हो, विजय! अपने भविष्य की अनिश्चितता को लेकर हम कितने परेशान थे। तुम्हारे जाने के बाद तो स्थितियां दिन-पर-दिन बदतर होती गयीं। समय गुजर रहा था, आशा की कोई किरण नहीं दिख रही थी। हमारे कैरियर की अनिश्चितता यथावत् थी। अनु अकसर बुझी-बुझी सी रहने लगी थी .. बात करते-करते वह अचानक अन्यमनस्क हो उठती। ऐसे प्रसंग अकसर आ जाते जब हम दोनों संजीदा हो उठते। अनु की विशेषता थी कि वह कितनी ही परेशान क्यों न हो, ख्ुाद को सहज और सामान्य बनाने – या कम-से-कम ऐसा दिखने – में उसे अधिक प्रयास नहीं करना पड़ता था। दूसरी तरफ मुझ पर छोटी से छोटी घटना का असर दिनों क्या महीनों तक रहता था। तुम तो जानते ही हो, उसके मन की थाह पाना कितना मुश्किल होता था। ऐसे ही एक बार बहुत कुरेदने पर उसने बस इतना कहा था — अवि, तुम समझते क्यों नहीं …? आखिर ऐसे कब तक चलता रहेगा? मेरी भी कुछ सीमाएं हैं … तुम जल्दी कुछ करते क्यों नहीं, चीजें मेरी बर्दाश्त से बाहर हो रही हैं।’’

कुछ रूककर अविनाश ने अपनी बात जारी रखी, ‘‘धीरे-धीरे हमारे बीच संवाद कठिन होता गया। हमारे भविष्य से जुड़े अहम् सवालों का कोई अनुकूल हल मेरे पास नहीं था। अनिश्चय और आशंका के उस दौर में हम कई बार बिना कुछ बोले घंटों बैठे रहते। मैं छुपकर अनु को निहारता… उसके मनोभावों को पढ़ने की चेष्टा करता, जबकि वह न जाने किन ख्यालों में खोई रहती। आखिरी बार ऐसे ही मानों किसी तन्द्रा से उठकर बड़े तल्ख शब्दों में उसने कहा था — अवि, तुम कायर और पलायनवादी हो … जीवन में कुछ कर पाना — किसी के हो पाना — तुम्हारे वश की बात नहीं।’’

‘‘इसके पहले कि इस अप्रत्याशित चोट से मैं संभलता, वह तेजी से उठकर चली गई थी। कई दिनों तक उसकी कोई खबर नहीं मिली। फिर एक दिन सुनने में आया कि अनु की सगायी हो गई है …ससुराल वाले दिल्ली की पार्टी हंै।’’

‘‘विजय, मैं अनु को पाने के सपने देखता था। किन्तु तब मुझे क्या पता था कि स्वप्न और सत्य तो बस दो समान्तर रेखाएं हैं जो कभी नहीं मिलतीं। एक आशा भर होती है कि आखिर सपना सच हो जायेगा, किन्तु यह आशा केवल छलना भर होती है जैसे दूर कहीं क्षितिज में पृथ्वी और आकाश मिलते दिखाई तो देते हैं किन्तु वास्तव में मिलते नहीं …।’’

‘‘कोई चीज चाहे कितनी ही प्रिय क्यों न हो जब तक आस पास रहती है उसकी वास्तविक कीमत का अहसास नहीं होता। किन्तु जब यही चीज हमेशा के लिए छूटने लगती है तो लगता है मानों जिन्दगी फिसल रही हो। ऐसे में यही मन करता है कि कैसे भी हो किसी भी कीमत पर इसे खोने से रोका जाये…!’’

‘‘मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। अनु के किसी और की हो जाने की खबर मेरे लिए कुछ ऐसी ही अप्रत्याशित घटना थी। मैंने उससे मिलने के कई प्रयास किये … हताश होकर एक दिन आखिर उसके घर पहंुच गया। घर पर एक नौकर के सिवाय और कोई नहीं था। पता चला कि सभी लोग कोई एक हफ्ता पहले दिल्ली गये हैं… अनुराधा मेम साब की शादी वहीं होगी। इस खबर ने मुझे तोड़कर रख दिया …जीवन में मैंने खुद को इतना छोटा और अपमानित कभी नहीं महसूस किया था। वापसी में विक्षिप्तों की भांति न जाने कहां-कहां भटकता रहा। एक तरफ अनु को खोने का दुःख, दूसरी ओर उसके व्यवहार पर क्षोभ और गुस्से की तिलमिलाहट… हर चीज से मन उचट गया था। … पढ़ाई भी मैंने बीच में ही छोड़ दी।’’

‘‘… फिर कुछ समय बाद इत्तफाक से ही अनु के विषय में हुई जानकारी ने मेरे जीवन की दिशा ही बदल दी। ….पता चला कि अपनी मम्मी और पापा से अपनी शादी को लेकर उसकी कई बार कहा-सुनी हुई थी। … यहां तक कि तंग आकर उसने आत्महत्या की भी कोशिश की थी किन्तु उसकी जान बच गयी। उसी के बाद कुछ बदनामी के डर से और कुछ उसकी मानसिक दशा को ध्यान में रखकर उसके पापा ने दिल्ली से ही शादी करने का निश्चय किया। …फिर तो अनु मानों पत्थर हो गई थी, उसने किसी भी तरह का प्रतिरोध करना छोड़ दिया था। ‘डिप्रेशन’ के उसी दौर में उसकी शादी हो गयी थी।’’

‘‘अब मुझे अनु के असंगत व्यवहार और अपने अपमान का उत्तर मिल गया था।…इतना दुख और मानसिक व्यथा उसने अकेले सहा ! इसी के बाद मैंने निश्चय किया कि कुछ भी हो अब किसी और को मैं अपनी जिन्दगी का साझीदार नहीं बना सकता। मम्मी-पापा की लाख कोशिशों के बावजूद मैं अपनी इस प्रतिज्ञा पर अटल रहा। कुछ दिनों बाद एक बैंक में नौकरी की पर उसमें मन नहीं लगा। अनु को खोने के कुछ सालों बाद एक और हादसा हुआ जब मेरे पापा ‘हार्ट अटैक’ से हमें छोड़ गये। … फिर मम्मी भी अधिक दिन नहीं चल पायीं। ’’

‘‘अब मैं पूरी तरह से ‘लावारिस’ और दुनिया की निगाह में ‘आजाद’ था। पापा काफी कुछ पीछे छोड़ गये थे जिसका इकलौता वारिस मैं ही था। किन्तु इतना बड़ा घर और मेरे जीवन की तनहाई और सूनापन… सब मिलकर मानों मुझे काटने दौड़ते थे। …आखिर मैंने वह घर बेंच दिया और दरवेशों की तरह रहने लगा । जीविकोपार्जन के लिए मुझे काम करने की विशेष आवश्यकता नहीं थी। … खालीपन दूर करने के लिए लिखना शुरू कर दिया और तब से मन का सारा जहर इसी तरह निकालता रहता हूं। … बस यही मेरी कहानी है।’’

(5)

काफी देर तक निस्तब्धता छायी रही, आखिर मैंने कुछ संकोच के साथ मौन तोड़ा, ‘‘अवि, यूं सारा जीवन नष्ट करने से क्या फायदा! जो गुजर गया वह तो लौट नहीं सकता। … आदमी जीवन में बहुत कुछ चाहता है पर उसे सब कुछ तो नहीं मिल जाता …। मेरी समझ में दोष तुम्हारा भी नहीं था और अगर तुमने कोई गलती की भी हो तो उसका पश्चाताप तुम पहले ही बहुत कर चुके हो। … अब भी समय है … एक नये जीवन की शुरूआत करो …जिसमें तुम मुझे हमेशा अपने करीब पाओगे।’’

इस पर अविनाश ने एक दीर्घ उच्छवास के साथ मौन तोड़ा, ‘‘विजय, यू नो ! ए मैन लिव्स् इन मोमेण्टस्, एण्ड आई हैव आॅलरेडी लिव्ड माइन। मुझे जिन्दगी से कोई गिला-शिकवा नहीं …। अनु के साथ कभी बिताए प्यार के दो-चार पल ही मेरे शेष जीवन का सम्बल हैं। … कभी हंॅसी-हॅंसी में हम दोनों ने साथ-साथ जीने-मरने की शपथ ली थी …. अनु ने वह शपथ पहले ही पूरी कर दी। अब जो है उससे मुझे कोई मतलब नहीं …। उसने मुझे कायर और पलायनवादी ठीक ही कहा था जो कभी मरने का साहस भी नहीं जुटा सका…। किन्तु अब जैसा भी हूं जितने भी दिन बाकी हैं अपनी आत्मा से और छल नहीं कर सकता।’’

मुझे याद आया कोई तीन साल पहले अनुराधा अचानक कनाटप्लेस में मिल गई थी। वह अकेली ही थी। वहीं एक रेस्त्रा में बैठकर काफी के बीच हमारी औपचारिक बातें हुईं थीं। पता चला कि पति एक प्राइवेट कम्पनी में प्रबन्ध निदेशक हैं और अकसर दौरे पर रहते हैं। वसन्त कुंज में अपना मकान और दो बेटी-बेटे हैं जो अब बड़े हो चले हैं। कुछ संकोच और सावधानीवश ही मैंने उससे अविनाश का जिक्र करना उचित नहीं समझा था ।… किन्तु एक साधन संपन्न परिवार की महिला का आभूषण रहित सादा लिबास कुछ अटपटा सा लगा था। उसकी उदास हंॅसी और रिक्त आंखें देखकर मुझे लगा था कि इन बीते वर्षों में बहुत कुछ गुजरा है और वह आज भी सहज नहीं हो पायी है।

एक बार तो इच्छा हुई कि अविनाश से अनुराधा की अपनी उस मुलाकात का जिक्र करूं। …. फिर मुझे लगा कि पुराने जख्मों को जितना कम कुरेदा जाय, उतना ही ठीक है … और मैं चुप रहा। वर्षों पहले शरत् बाबू की ‘देवदास’ पढ़ी थी, जेहन में बार-बार यही विचार उठता रहा कि क्या यह एक और देवदास और पार्वती की कहानी नहीं है?

इस बीच शायद आगे लाइन क्लीयर होने का सिगनल मिल गया था क्योंकि गाड़ी ने धीरे-धीरे रेंगना शुरू कर दिया था। स्टेशन काफी पीछे छूट गया था। बाहर घना अंधेरा था जो शायद हमारे मन के अंधेरों से मेल खा रहा था। … हम दोनों ही चुप थे और बेहद उदास भी… थोड़ी देर में राजधानी पुनः पूरे वेग से गन्तव्य की ओर जा रही थी। बैरा बहुत पहले खाना ‘सर्व’ करके जा चुका था पर हम दोनों में से किसी की भी उसे छूने की इच्छा नहीं बची थी। टेªन की गति के साथ हमारे मन भी शायद अलग-अलग जीवन की मीमांसा में खोये थे। … कुछ जिन्दगियां ऐसी भी होती हैं।

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