दोपहर का खाना खत्म कर के रोज की तरह विनोद बाहर बरामदे में निकल आये। रात
भर रूक-रूक कर बरसने के बाद सुबह थोड़ा बादल छटे थे। लेकिन दोपहर में फिर अंधेरा
सा घिर आया था। बस बारिश बन्द थी। बाहर लान में आकर उन्होंने गार्डन-अम्ब्रेला के अन्दर
रखी हुई एक कुर्सी खींच कर बाहर निकाल ली। रोज धूप होने की वजह से वे शाम तक
अम्ब्रेला के अन्दर ही दुबके रहते थे। रिटायरमेंट के बाद अब यही उनका रूटीन बन गया
था। लेकिन आज तो बादलों की सांवली छत्रछाया में बैठने का मौसम था।
लम्बे चैड़े लाॅन के बीच की थोड़ी-सी जगह छोड़ कर चारों तरफ रजनी गन्धा के पौध्
ो लहलहा रहे थे। रात की बारिश की वजह से कुछ पौधे झुक से गये थे। कुछ फूलों की
पंखुड़िया टूट गई थीं। फिर भी पौधे अपने पूरे शबाब पर थे। नीचे तक झुक आई एक पतली
टहनी को उन्होंने आहिस्ते से उठा कर ऊपर किया तो फूलों के अन्दर जमी हुई बूंदों ने उनकी
उंगलियों को भिगो दिया। उंगलियों पर ठहरी हुई ठन्डी पारदर्षी बूंदे देखते-देखते लाल रंग
में तब्दील होने लगीं। उन्होंने झट से कुर्ते से अपनी हथेलियां पोछ लीं। फिर कुर्सी पर बैठ
कर अपनी आंखें बन्द कर लीं।
किचपिच गलियांे के किनारे बने मकान और घने मकानों के बीच किचपिच सी गलियां।
रकाबगंज की उस पुरानी बस्ती को शहर से जोड़ती एक पतली सड़क। सड़क का एक सिरा
तो बाकी शहर की तरफ जाता था। मोहल्ले के करीब-करीब सभी लोग अधिकतर उसी सिरे
का इस्तेमाल करते थे। दूसरा सिरा स्टेशन रोड से जुड़ता था। बस एक सड़क भर पार करते
ही विक्टोरिया स्ट्रीट का वह इलाका भी था जिसकी कल्पना भी शायद रकाब गन्ज के बाशिन्दे
नहीं कर सकते। बिन्नू भी तो एकदम हकबका गया था जब पहली बार विक्टोरिया स्ट्रीट की
मायावी दुनिया में पहुंचा था। साइकिल सीखते-सीखते अचानक ही वह उस छोर से निकल
कर स्टेशन रोड पार कर गया। और पार करते ही वह जिस इन्द्रधनुशी दुनिया में पहुंचा था
वह उसके ग्यारह-बारह साल के जीवन के लिए एकदम अन्जानी और अचीन्ही थी।
चैड़ी खुलती हुई सड़क के दोनों ओर बनी विशालकाय कोठियां। दो चार कोठियों में ही
शायद उसका पूरा रकाबगंज समा जाए। सड़क के दोनों ओर बने फुटपाथ पर अमलतास,
गुलमोहर और न जाने कौन-कौन से पेड़।
हर बंगले में फूल और पेड़ों से भरे बडे़-बड़े बगीचे, गेट पर दरबान, गैरेज में गाड़ियां,
बगीचों में काम करते माली और जंजीरों में बंधे बड़े-बड़े कुत्ते।
मई की उस पीली तमतमाती दुपहरिया में जब रकाब गन्ज के मकानों की छते और दीवारे
तड़कने लगती थीं तब विक्टोरिया स्ट्रीट में घुसते ही बिन्नू को लगा जैसे किसी ने उस पर केवड़े से भिगोकर मोरपंखिया चंदोवा तान दिया है। नीम, अमलतास और गुलमोहर के हरियाते
गझिन चक्रव्यूह को भेद पाने में असमर्थ सूरज की किरणें भी अपने हथियार डाल कर सुस्ता
सी रही थीं। पत्तों से झरती तोतापंखी झिलमिलाती रोशनी के बीच दहकते हुए लाल और पीले
फूल। कैसी विचित्र मायानगरी थी यह।
अंगे्रजी हुकुमत के समय ऊंचे-ऊंचे सरकारी ओहदों पर काम करने वाले अधिकारियों
के लिए सरकार ने यह जगह और जमीन दिलवाई थी। खूब दिल खोल कर लोगों ने यहां
अपने आशियाने को सजाया था। अभिजात्य वर्ग की नफासत और नजाकत ने इस इलाके को
शहर के बाकी मध्यमवर्गीय कूड़ाखाने से एकदम काट कर रख दिया था। लेकिन बिन्नू की
पूरी गर्मी की छुट्टियां इस वर्ग भेद को मिटाने की पुरजोर कोशिश करती रहती। पूरी दुपहरियां
सैकड़ों चक्कर लगते थे। विक्टोरिया स्ट्रीट की एक-एक कोठी की खिड़की और दरवाजों पर
लगे पर्दे के रंग तक उसे याद हो गये थे। किस बंगले की बाउन्ड्री वाल पर बोगेनवेलिया की
बेल है किस पर हरी चमेली की, किस गेट पर मालती का झोंपा है, किस गेट के दोनों ओर
हरसिंगार का पेड़ है, उसे सब पता था।
इन्टर पास करने के बाद ही जब उसका इंजीनियरिंग काॅलेज में दाखिला हुआ तो इतने
सालों बाद अचानक एक और रहस्य उजागर हुआ। जिस इन्जीनियरिंग कालेज में शहर का
आधा चक्कर लगाकर जाना पड़ता था वह दूसरी तरफ से विक्टोरिया स्ट्रीट पार करते ही बस
लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर ही था। बस फिर क्या था। वह सपनीली दुनिया उसकी
रोज की रह गुजर बन गई। एक सुबह कालेज जाते समय अचानक उसकी साइकिल की चेन उतर गई। थोड़ी देर की मशक्कत के बाद चेन तो चढ़ा ली लेकिन उसके हाथ बुरी तरह काले हो गये। उसने
इधर-उधर नजर दौड़ाई तो सामने ही जस्टिस उमाकांत मिश्र की कोठी थी। बूढ़ा माली पाइप
लगाकर पौधों को पानी दे रहा था। खुले गेट से अन्दर जाकर माली को अपना हाथ दिखाकर
इशारा किया तो माली ने पाइप उसकी ओर बढ़ा दी। देर तक पानी के नीचे हाथ रगड़ने के
बावजूद जब ग्रीस की कालिख साफ नहीं हुई तो वह परेशान हो गया।
-‘‘रघूकाका, अन्दर से साबुन लाकर दे दो उनको।’’
अचानक ऊपर से आती एक महीन रेशमी आवाज पर विनोद ने सिर उठाया। सामने
ऊपर की बालकनी पर एक बहुत गोरी सी बड़ी-बड़ी खामोश आंखों वाली लड़की रेलिंग पर
अपना चेहरा टिकाये उसे देख कर मुस्कुरा रही थी। विनोद हड़बड़ा गया। माली मुड़ कर
साबुन लाने जाये इससे पहले ही वह ‘‘ठीक है ठीक है’’ करता हुआ अपनी सायकिल उठा
कर भाग लिया। हद हो गई। परीलोक तो उसने बरसों पहले खोज लिया था लेकिन परी अब
जाकर दिखी।शाम को काॅलेज से लौटते समय उसने पहले दूर से कोठी की बालकनी की तरफ देखा।
वहां कोई नहीं था।
पूरी रात वह सुबह होने का इन्तजार करता रहा। सुबह कोठी के नजदीक पहुंचते ही
उसने अपनी सायकिल धीमे कर ली। वह बालकनी में बैठी कोई किताब पढ़ रहीं थी। वह
थोड़ी दूरी पर कुछ देर तक खड़ा रहा। लेकिन जब उसने सिर ऊपर नहीं उठाया तो वह
काॅलेज की तरफ बढ़ गया। फिर वह करीब-करीब रोज ही उसे दिखने लगी। अब वह उसकी
ओर देख कर मुस्कुराती भी थी। वह भी धीरे से सिर झुका लेता था। उसने रघु काका से दोस्ती
करके उसका नाम जान लिया था। नीलिमा नाम था उसका। गेट पर खड़ा दरबान पता नहीं
क्यों उसे आसपास देखते ही अपना डन्डा फटकारते हुये मूंछों पर ताव देने लगता था।
एक सुबह वह ऊपर बालकनी की ओर देखता आ रहा था कि अचानक ही गेट के अन्दर
से बाहर निकलती गाड़ी से टकराते-टकराते बचा। गाड़ी के पीछे की सीट पर वह बैठी थी।
एक तो अचानक ब्रेक लगाने की वजह से दूसरे आसमान के चांद को इतना नजदीक देख
कर वह हड़बड़ा गया और साइकिल से गिरते-गिरते बचा। उसके चेहरे पर उड़ती हवाइयां
देख कर वह खिलखिला कर हंस पड़ी । तब तक ड्राइवर ने उसे घूरते हुए गाड़ी आगे बढ़ा
दी।
फिल्मों और तस्वीरों के अलावा कोई सचमुच में इतना सुन्दर हो सकता है। उसने आज
ही जाना। क्या सोचा होगा नीलिमा ने उसे इतने पास से देख कर। वैसे अपने रकाबगंज में
तो वह भी हीरो माना जाता है। इंजीनियरिंग काॅलेज के दोस्तों की सोहबत ने उसे खासा
स्टाइलिश भी बना दिया था। वह शीशे में अपने आपको देखता रहता। वह फिर इतनी जोर
से हंॅसी क्यों थी। कहीं वह जोकर तो नहीं दिखता। लेकिन फिर दूसरे दिन भी जब वह
बालकनी से उसे देख कर मुस्कुराई तो लगा नहीं, जरूर उसमें कोई बात है। तभी तो इतने
बड़े घर की इतनी खूबसूरत लड़की उसका रोज इन्तजार करती है, मुस्कुराती है।
फिर एक दिन उसने दिल मजबूत कर माली के हाथों एक प्रेम-पत्र भेज ही दिया। आठ
पेज लम्बे प्रेम-पत्र में घूम फिर कर बस एक ही रट थी कि मैं आपको बहुत प्यार करता हूं।
चिट्ठी देने के बाद पांच दिन तक वह फिर उस सड़क पर नजर नहीं आया। छठे दिन वह
बहुत चैकन्ना होकर उधर से निकला। पता नहीं क्या आफत आई हो। वह कोठी से कुछ दूर
पहले ही खड़ा होकर जायजा लेने लगा। वह रोज की तरह बालकनी में बैठी थी तभी माली
उसकी ओर लपकता हुआ आया। लगा कि शायद उसका गला पकड़ने केलिये आ रहा है।
लेकिन जब उसने जेब से गुलाबी रंग का एक लिफाफा निकाल कर उसकी ओर बढ़ाया तो
वह बमुश्किल अपनी धड़कनों पर काबू पाते हुये वहां से भाग निकला। विक्टोरिया स्ट्रीट के
मुहाने पर पहंुच कर उसने उस खुशबुदार लिफाफे को खोला। कुल चार लाइनों की छोटी से चिट्ठी। आप इंजीनियरिंग कर रहे हैं जान कर बड़ी खुशी हुई । आप अपना मन पढ़ाई
में लगाइये। जब आप इंजीनियर बन जायेंगे तब तक मैं ऐसे ही बालकनी में बैठी आपका
इन्तजार करती रहूंगी।
इतना बड़ा आग्रह। इतना विश्वसनीय आश्वासन। बस विनोद सब कुछ भुला कर अपने
आखिरी साल की पढ़ाई में जुट गया। दिन रात एक करके जिस दिन अपना आखिरी पेपर
दिया उस दिन काॅलेज से लौटते समय उसने कोठी की तरफ ध्यान दिया। आज सुबह भी
नीलू वहां बैठी थी और रोज की तरह हाथ भी हिलाया था। लेकिन और दिनों की तरह इस
समय कोठी में सन्नाटा नहीं था। तम्बू कनात लग रहे थे फूलों के बंदनवार सज रहे थे। माली
नजर नहीं आ रहा था। हिम्मत करके दरबान से पूछा। पहले तो उसने घूरा, फिर मुंह में खैनी
भरकर डण्डा पीटते हुये बोला -‘‘कल बिटिया की शादी है, उसी की तैयारी चल रही है।’’
विनोद को लगा कि उसकी दुनिया उजड़ गई। आखिरी उसने उसके साथ इतना बड़ा
मजाक क्यों किया। वह इतने दिनों तक किसी मष्ग-मरीचिका में भटक रहा था क्या? उस
मायानगरी के सारे चरित्र भी शायद मायावी हैं, एक छलावा हैं। पूरा दिन घर में पड़े रहने के
बाद दूसरे दिन शाम को वह उठा। अपने आप को समेटा। रजनी गन्धा के फूलों का गुलदस्ता
लेकर पहंुच गया अपने प्यार की मजार पर चढ़ाने के लिये। दस्तूर तो निभाना ही था।
कोठी दुलहन की तरह सजी थी। चारों तरफ लोग ही लोग। बारात आ चुकी थी। भीड़
से बचता बचाता वह कोठी के ऊंचे वरान्डे के एक किनारे जाकर खड़ा हो गया। उसने चारों
तरफ निगाह दौड़ाई लेकिन उसे दूल्हा-दुल्हन जैसा कोई नहीं दिखा। काफी देर तक वह
बेचैनी से इधर उधर उसे ढूंढता रहा। फिर वह धीरे धीरे वरान्डे से दूसरी तरफ बढ़ गया।
तभी उसकी निगाह पीछे वाले शामियाने में बने स्टेज पर गई। वहां दूल्हा-दुल्हन बैठे थे।
लेकिन पास जाते ही उसकी धड़कने तेज हो गई। दुल्हन की जगह यह तो कोई दूसरी ही
लड़की बैठी थी। तो वह कहां है? उसकी बेताबी बढ़ने लगी। तभी उसे दुल्हन के पीछे
लड़कियों के झुण्ड में वह बैठी दिखी। सफेद जार्जेट की जरी के काम वाली साड़ी में वह उसे
देखते ही खिल उठी। तो इसकी शादी नहीं है। और वह उसकी ओर बढ़ा लेकिन वह लोगों
की भीड़ में फिर कहीं गुम हो गई। वह परेशान सा उसे इधर-उधर ढूंढता रहा। तभी अचानक
ही वह अपनी व्हील चेयर का पहिया अपने हाथों से चलाती हुई उसकी ओर बढी। ठीक उसके
सामने पहुंच कर उसने अपने दोनों हाथ उसकी तरफ बढ़ा दिये। ‘‘मुझे पता था कि आज तुम
जरूर आओगे।’’
फटी आॅंखों से विनोद ने व्हील चेयर पर बैठी अपनी उस स्वप्न परी को देखा। फिर न
जाने उसे क्या सूझा, वह रजनी गन्धा का गुलदस्ता उसके ऊपर लगभग फेंकता हुआ सा
बेतहाशा गेट की तरफ भाग चला।
बहुत दिनों तक विनोद की हिम्मत नहीं पड़ी उस तरफ जाने की। दो हफ्ते बाद एक
दिन दोपहर में वह कोठी की तरफ गया। उस समय ज्यादातर वहां सन्नाटा ही रहता था।
लेकिन उस दिन तो कोठी पर मरघट सी उदासी छायी हुई थी। बेटी की विदाई के बाद घर
ऐसा भूतिया हो जाता है क्या? अप्रैल की शुरूआत थी लेकिन बगीचा पूरा सूख रहा था। माली
भी कहीं नहीं दिखा। बन्द गेट से उसने अन्दर झांका लेकिन दूर-दूर तक उसे कोई नहीं
दिखा। तभी किसी ने कन्धे पर हाथ रखा तो वह मुड़ा। सामने माली था। -‘‘अरे बाबू आप
कहां रहे इतना दिन। हम कब से आपकी राह देखते रहे।’’ -‘‘क्या हुआ रघु काका, यहां इतना
सन्नाटा क्यों है?’’ -‘‘का कहें बाबू। जौने घर की जान चली जाई ऊ घर समसान तो होई
जाई।’’
जिस दिन जज साहब की बड़ी बेटी की शादी हुई उसके दूसरे ही दिन उनकी छोटी
बेटी नीलिमा ने अपने हाथ की नसें काट कर आत्म हत्या कर ली थी। दस साल की उम्र
में एक कार एक्सीडेंट में उसके रीढ़ की हड्डी में चोट लग गई थी जिसमें उसके शरीर का
निचला हिस्सा बेजान हो गया था। बहुत इलाज हुआ लेकिन उसके पैरों की ताकत वापस
नहीं लौटी। बिटिया बहुत अच्छी थी लेकिन बहुत उदास रहती थी। इधर दो तीन सालों सें
उसके चेहरे पर रौनक वापस आ गई थी। बहन की शादी के दिन तो बहुत खुश थी। फिर
पता नहीं क्या हो गया?’’ माली रो रहा था।
विनोद वहीं गेट के बाहर बनी पुलिया पर धम से बैठ गया। तभी माली ने अपनी जेब
से एक चिट्ठी निकाल कर उसे दी।
-‘‘शादी वाले दिन बिटिया नीचे बैठक में बुलाकर हमको यह चिट्ठी दी थी। आप तब
बाहर बरामदे में फूल लेकर खड़े रहे। बिटिया बोली कि बाहर बाबू को यह चिट्ठी दे आओ।
हम बाहर निकले तो कोई हम को बुला लिया। थोड़ी देर बाद हम वापस आये तो आप वहां
दिखे नहीं। बहुत ढूंढा पर भीड़ में आप मिले नहीं। तब से आपको ढूंढ ही रहे हैं। मालिक
मालकिन सब दिल्ली चले गये। कोठी में बस चैकीदार और हम हैं।’’
विनोद ने कांपते हाथों से चिट्ठी खोली -‘‘विनोद बाबू, तुम मेरे एक दम नजदीक
खिड़की के उस पार हाथ में रजनी गंधा के फूल लेकर खड़े हो। तुम्हारी बैचैनी और बेताबी
देख कर मुझे हंसी आ रही है। तुम्हारी बेसब्र निगाहें मुझे ढूंढ रही हैं।
अब तो कुछ दिनों बाद तुम इंजीनियर साहब बन जाओगे। मुझे भूल तो नहीं जाओगे?
नहीं, मुझे पता है, तुमने इतने सालों मेरा इन्तजार किया है। मेरे बारे में सब जानते-बूझते
हुये भी। आज मेरी दीदी की शादी है। कल, नहीं परसों तुम आकर पापा से बात करना। मैं
उन्हें पूरा विश्वास दिलाउंगी कि तुम उनकी प्यारी बेटी को रजनी गंधा के फूलों की तरह हमेशा
गोद में उठा कर रखोगे। रखोगे न। रघु काका अक्सर तुम्हारे बारे में बातें करते हैं। अच्छा अब तुम बहुत परेशान हो रहे हो। ठीक है बाबा, अब मैं चिट्ठी बन्द कर के रघु काका को
दे रही हूं। बस थोड़ा इन्तजार और करो। तुम्हारी जिन्दगी फिर तुम्हारे सामने होगी। अच्छा,
तुम्हें कैसे पता कि मुझे सफेद रंग ओर रजनीगन्धा के फूल बहुत पसन्द हैं। ओ हां। अब तुम
रूआंसे हो रहे हो। तो अब चिट्ठी बन्द।”
तुम्हारी नीलू ।
‘‘पापा-पापा चाय तैयार है। जल्दी अन्दर आइये।’’
अचानक विनोद ने आंखें खोली। शाम हो गई थी। उनकी बेटी उन्हें बुला रही थी।
-‘‘आइये पापा, मेरी म्यूजिक क्लास के बच्चों के आने का टाइम हो गया है। फिर आपको
अकेले ही चाय पीनी पड़ेगी।’’
विनोद धीरे से उठे। बरामदे में व्हील चेयर पर बैठी अपनी बेटी के चेयर की हैंडिल थाम
कर डाइनिंग रूम की तरफ बढ़ चले।
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