My Humming Word

  1. Article

मृग- मरीचिका

कैसी टिटिहरी की तरह चीखती है यह औरत टोन नहीं बदल सकती, वॉल्‍यूम तो
थोड़ा कम कर सकती है। फिर आज सन्‍डे का दिन। छुट्टी का दिन सिर्फ सुबह दस बजे
तक सोने के लिये ही तो नियमित है उसके लिये। उसके बाद तो बस सज़ा है। किसी
तरह काटनी होती है। उसकी मनहूसियत और चि‍कचिक के बीच।
“राकी S S S S, रॉकी बेटे, देख तो जरा मेरी ग्रीन टी शर्ट तेरी बॉलकनी में तो
नहीं गिर गई ?”

…और फिर रॉकी टी शर्ट को बॉल की तरह गोल-गोल बना कर उसकी तरफ
उछालेगा। पता नहीं वह साला जानबूझकर निशाने से नहीं फेंकता या वह ही जान-बूझकर
कैच छोड़ती रहती है। देर तक हंसते खिलखिलाते यही खेल चलता है। आये दिन का यही
तमाशा। कितनी बार कहा कि पिन ठीक से लगाया करो कपड़ों पर। ”
“अरे यहां की हवायें देखी हैं, पिन समेत ही उड़ा ले जाती है कपड़ों को।”
हवायें भी साजिश करती हैं । सोसायटी के और लोग क्‍या सोचते होंगे, इसकी
उसके कोई परवाह नहीं ।“ यहां किसे फुरसत है किसी के बारे में सोचने की? ”
फुरसत तो नहीं है, फिर ये साला रॉकी क्‍यों दिन भर मुंह बाये कपड़ों को कैच
करने की फिराक में रहता है।

तकिये में मुंह गड़ाये हुये उसने एक आंख खोल कर घड़ीकी तरफ देखा।
गनीमत है नौ बज चुके है। चलो मतलब भर का तो सो ही लिया। फिर
दोनों आंखे खोल कर सामने की बालकनी का जायज़ा लिया। वह अभी भी बॉलकनी में
झुकी हुई थी। रॉकी से उसकी लनतरानियां चालू थी। झुकने से उसकी अधभीगी नाइटी
उसके भारी-भरकम नितम्‍बों के बीच में अटक गई थी। अन्‍दर पैन्‍टी भी नहीं पहनती
यह बेहूदी औरत। इतना बड़ा साइज बनता ही नहीं होगा। उसने वितृष्‍णा से मुंह फेर कर
तकिया मुंह के ऊपर रख लिया। दस ग्‍यारह बजे तक ऐसी ही घूमेगी पूरे घर में। कभी-
कभी तो जानकी के सामने भी ऐसी ही रहती है।

“ वह तो औरत है, उससे कैसी शर्म ? ”
ग्‍यारह बजे के बाद ही उसकी नाइटी उतरती है। आजकल ढीली-ढाली टीशर्ट पर ही कभी
बरमूडा कभी कैप्री पहनने लगी है। कभी बेटों की फटी पुरानी जीन्‍स को घुटने से
काटकर अजीब सी शेप देकर चढ़ा लेती है।

“भाभी जी के ऊपर सारी ड्रेसेज़ सूट करती है।”
घोष जब अपनी मटमैली आंखों से मुस्‍कराते हुये कमेंट करता है तो यह बेवकूफ़ औरत
निहाल हो जाती है। चालीस-बयालीस साल की मोटी औरत के ऊपर कोई भी ड्रेस सूट

नहीं कर सकती। सिर्फ कॉम्‍प्‍लेक्‍शन ही तो फेयर है। घोष की बीबी काली है तो
क्‍या हुआ, कितनी स्लिम –ट्रिम सी है।

जब बहू बनकर आई थी तो मोहल्‍ले की औरतें उसकी तारीफ करते नही थकती
थीं। कितनी सुन्‍दर बहू है। एकदम मैदे की लोई जैसी चिकनी सफ़ेद। कहीं कोई कमी
नहीं। दोस्‍त यार भी उसकी किस्‍मत से रश्‍क करते। नज़र भर देखने पर तो उसे भी
वह सुन्‍दर ही लगती। दुबली–पतली, महीन सुरीली आवाज़, लम्‍बे बाल, बड़ी-बड़ी आंखें।
और क्‍या होती है सुन्‍दरता? लेकिन नज़र भर वह उसे देखता ही कब था?
नज़र मे तो बस नीरजा बसी थी। बेहद साधारण से नैन-नक्‍श, लेकिन एक
असाधारण सी कशिश। सम्‍मोहित कर देने वाला काला जादू।

जब उसने पहली बार उसे
सुनील से मिलवाया था तो सुनील उसकी दीवानगी पर दंग रह गया था।- “यार तुझे इस
लड़की में ऐसा क्‍या दिखता है जिसके पीछे तू इतना पागल हो रहा है। देख तू बुरा मत
मानना यार। लेकिन मेरी महरी की लड़की शन्‍नों को भी ना, अगर अच्‍छे कपड़े पहना
दिये जायेंगे तो इससे बीस ही बैठेगी।” उसका मन हुआ कि वह सुनील का गला दबा दे।
छि: इन लोगों का एस्‍थेटिक सेंस बस औरत के भूगोल तक ही सीमित है।

_ “तू पागलों की तरह उसके किस्‍से सुनाता था तो मुझे लगा कि वाकई उसमें दम
होगा। कोई बात ज़रूर होगी उसमें। लेकिन यार …… रियली यू आर डिस्‍गस्टिंग।”
एक अभिशापित देवकन्‍या भटकती हुई इस दुनिया में आ गई थी। वह दुनिया
जो सुनील जैसे बेहूदे और नामुराद लोगों से भरी पड़ी है। कम से कम वह उन जैसा नही
है। तभी तो नीरजा एक वरदान की तरह उसे नसीब हुई है।- “तूने उसकी बातों का
अन्‍दाज़ देखा है। उसकी आवाज में जो तलत महमूद की तरह एक मखमली थरथराहट
है उसे महसूस किया है।…….. उसकी झील सी गहरी आंखों में एक तिलस्‍म सा है जहां
सब कुछ रहस्‍यमयी लगता है। ………उसका उठना बैठना चलना फिरना सब में एक
लय है, एक रिदम है। उसके हर लहजे में एक सॉफिस्टिकेशन है, अदा में एक नशा सा
है……….”

“और साले तू उस नशे में पक्‍का बेवड़ा हो चुका है।”
वाकई वह सरापा उसकी खुमारी की गिरफ्त में था। सुनील की अपनी दलील थी –
“ऐसा है अमित, यह तेरी जिन्‍दगी में आने वाली पहली लड़की है, तो यह तुझे अन्‍धे
के हाथ बटेर जैसी लग रही है। …………अब तू मेरी तरह इतना खुश नसीब तो है नहीं
कि लड़कियां तेरे आगे पीछे घूमे। लिहाजा वह तुझे हूर तो लगेगी ही न। … लेकिन मेरी
बात मान। जैसे ही तेरी लाइफ में कोई दूसरी बसन्‍ती आ जायेगी तुझे अपने आप ही
अन्‍दाजा़ हो जायेगा कि लड़किया होती कैसी है?…….अबे लड़कियां ऐसी होती है? न
देखने लायक न चखने लायक।” उसका मन करता कि वह सुनील का सिर फोड़ दे या

फिर अपना। फिर कभी उसे सुनील की बातों में कुछ दम भी लगता। कभी उसकी
बेवकूफी पर हंसी भी आती। आठ-नौ साल की उम्र से जब उसने पहली बार छोटी मौसी
के घर उनके हाथ का बना मटन खाया था तो कई दिनों तक उसके स्‍वाद से अभिभूत
रहा। खाने की कोई डिश इतनी स्‍वादिष्‍ट भी हो सकती है, वह कभी सोच भी नहीं
सकता था। फिर उसके बाद से वह अब तक हजारों बार कितने तरह का नॉननवेज खा
चुका है। लेकिन उस पहले स्‍वाद की तरह उसे फिर दुबारा स्‍वाद नहीं मिला। खुद मौसी
के हाथ की ही बनी कोई प्रिपरेशन उसे उतनी टेस्‍टी नहीं लगी।

शायद नीरजा भी उसके पहले नॉनवेज के टेस्‍ट की ही तरह है। दुबारा कोई
अप्‍सरा भी उसे उतना लुभा नहीं सकती। नीरजा में जो बात है वह दुनिया की किसी भी
लड़की में कभी हो ही नहीं सकती। कम से कम उसकी पहुंच के दायरे में आने वाली
किसी भी लड़की में। खैर, उसका दायरा था ही कितना बड़ा। उसके संस्‍कारी और
आचार-विचार वाले परिवार में मौज-मस्तियों का आसमान बहुत बहुत त़ग था। प्‍यार-
मोहब्‍बत के चक्‍कर में पड़ना, आहें भरना, किसी की याद में आंसू बहाना यह सब
भावनात्‍मक अय्‍याशी मानी जाती थी। बाबू जी के ठेठ शब्‍दों में “कंगाल गुंड़ई” थी यह
सब । फिर भी उसके दिल ने बगावत कर दी और नीरजा आसमान के तारे की तरह
टूटकर उसकी झोली में आ गिरी थी। शादी के बाद दोस्‍तों में सुनील ने ही उसे सबसे
पहले बधाई दी थी। “बड़ा किस्‍मत वाला है यार जो तुझे अंजलि जैसी बीबी मिली। अब
बताना बेटा कि लड़कियां कैसी होती है?”

वह क्‍या बताता ऐसे उल्‍लू के पट्ठो को? दिल का मुआमला है कोई दिल्‍लगी
नहीं। नीरजा उसका पहला प्‍यार थी, उसकी बैचेन रूह का करार थी, उसकी ख्‍वाहिशों,
मन्‍नतों की मंजिल थी वह। जब वह अपनी रेशमी आवाज में बोलती थी तो इस डर से
वह उसकी बातें ठीक से सुन भी नहीं पाता था कि अगले ही क्षण कही वह बोलना बन्‍द
न कर दे। जब वह लतर चंपा की लहराती हुई नाजुक टहनी की तरह उसके पास आकर
बैठती थी तो वह इस खटके से भरपूर निहार भी नहीं पाता था कि कहीं वह अगले पल
गायब न हो जाये। कितना बेवकूफ था वह। हर पल उसे खो देने के डर से उसकी
मौजूदगी को भी कभी ठीक से एन्‍जॉय नहीं कर पाया। वह एक मृग-मरीचिका की तरह
उसकी जिन्‍दगी में आई। फिर कब एक चिकनी मछली की तरह उसके हाथ से फिसल
गई, इसका उसे पता भी नहीं चला । हां वह कोई मत्‍स्‍यकन्‍या ही तो थी। जब पहली
बार उसे देखा था तभी तस्‍वीरों में देखी मरमेड की याद हो आई।
मौसी के घर ताला बंद देख कर वह उनके पड़ोसी के घर चला गया था, उनका
पता लगाने। दरवाजे़ की बेल बजाने से पहले ही अचानक उसकी निगाह वरान्‍डे की
बगल से निकली एक पतली गली पर चली गई।

बेतरतीब सी बढ़ी हुई घनी घास के ऊपर दूर तक बिखरे हुये नांरगी डडिंयों वाले
सफेद फूल। बाउन्‍ड्री के उस पार लगे हर सिंगार के पेड़ की ज्‍यादातर शाखायें इसी ओर
झुकी थीं। अगस्‍त के आखिरी हफ्ते की दोपहर थी। घने बादलों की नीली रोशनी में
गहरी घास पर बिछे उन फूलों की सफेदी कुछ और ही निखर आई थी। रात जम कर
बारिश हुई थी। सब कुछ धुला-धुला सा था। चुपके से वह गली में उतर गया। बेमतलब
ही उसने हथेलियां फूलों से भर ली। उन्‍हे सूंघता हुआ वह वापस लौट ही रहा था कि
सामने खुली हुई एक खिड़की पर निगाह गई। अन्‍दर रॉड की रोशनी से नहाये कमरे में
नीले रंग के बिस्‍तर पर वह पेट के बल लेटी थी। तकिया सीने पर दबाये, दोनों
हथेलियों पर गाल टिकाये वह कोई किताब पढ़ रही थी। दोनों पैरों को एक दूसरे में फंसा
कर, ऊपर की तरफ उठाये वह धीरे-धीरे हिला रही थी। उसकी ग्रे कलर की नाइटी
फिसलकर घुटने तक आ गई थी। पिंडलियां एक दम खुली थी। वह उसका चेहरा ठीक
से नहीं देख पा रहा था, लेकिन लगा कि वह मछली जैसा ही होगा। नीले पानी में पूंछ
ऊपर की उठाकर तैरती हुई किसी बड़ी समुद्री मछली की तरह ही लग रही थी वह।
जलपरी। अचानक भीगी घास से एक सीला हुआ भभका सा उठा। मछराहिन-मछराहिन।
आज इतने सालों बाद भी वह उसकी पहली छवि को नहीं भूल सका। न वह मछराहिन
गंन्‍ध। मत्‍स्‍यगन्‍धा।

उसे कुछ भी पढ़ते रहने का जूनून सा था। दुनिया जहान का सारा ज्ञान वह
अपने पल्‍लू में बांध कर रखती थी। उसके पास कहने के लिये, या शायद बताने के लिये
बहुत कुछ होता था। लेकिन उसके पास सुनने के अवसर बहुत कम होते थे। वह तो बस
“तुमकों देखूं कि तुमको बात करूंगी” वाली कशमकश में ही रह जाता और समय बीत
जाता था।

कला और साहित्‍य का काई भी टॉपिक उससे अछूता नहीं था। भात खंडे, किशोरी
अमोनकर से लेकर बीथोविन और एल्विम प्रिस्‍ले तक का जिक्र वह कर सकती थी।
राजा रवि वर्मा से लेकर लियोनार्दो, पिकासो और अमृता शेरगिल पर उसकी पकड़ रहती।
लिट्रेचर पर तो उसे महारत हासिल थी। लगभग सारी दुनिया का साहित्‍य उसने छान
मारा था। बात-बात में शेर-ओ-शायरी उसकी आदत में शुमार था।

“उसे कितना नॉलेज है यार। जीनियस है यह लड़की।” उसके मल्‍टीडायमेन्‍शनल
व्‍यक्तित्‍व से चकराये अमित की बातें सुनकर सुनील ठहाके मारकार हसं पड़ता। “अबे
उसका नॉलेज लेकर तुझे चांटना है क्‍या? तू उससे पागलों की तरह प्‍यार करता है
और वह है कि इनसाइक्‍लोपीडिया बनी ज्ञान के पन्‍ने बांचती रहती है ……………..
अमां लड़कियों को पन्‍ने दर पन्‍ने नहीं, पर्त –दर-पर्त खुलना चाहिये , समझा कि नहीं।”

वह एक आंख दबाकर उसे छेड़ देता। फिर वह बहुत संजीदगी से किसी संत-
महात्‍मा की तरह अपने अनुभवों का सार उसे समझाता।“मेरी अपनी फिलॉसफी तो यह है बेटा कि शरीर से खूबसूरत और दिमाग से पैदल
लड़कियां ही लड़कों की पहली पंसद होती है। ……….पसन्‍द और प्‍यार तक तो फिर भी
गनीमत है लेकिन बीबी तो हमेशा बेवकूफ किस्‍म की लड़कियां ही अच्‍छी साबित होती
है। ………….अपने कपूर सर की प्रोफेसर बीवी को देखा है। कैसे बेचारे कपूर सर की
लाइफ हेल कर दी है उसने। ………..जनाबे आली तो किसी बला की खूबसूरत और
इडियट किस्‍म की लड़की से शादी करेंगे, फिर उसे जैसा चाहेंगे, अपने फ्रेम में फिट कर
ले जायेगें।”

शादी तो वाकई उसने खूबसूरत लड़की से ही की थी। लेकिन साधना सुलझी हुई,
समझदार पत्‍नी थी। सुनील के स्‍ट्रेट फॉरवर्ड रवइये और बचकानी बातों पर अलबत्‍ता
उसकी आंखों में शर्म और दर्द का एक मिला जुला मंजर अक्‍सर दिखता था। किस्‍मत
वाला था सुनील। लेकिन सुनील के फलसफे के हिसाब से उसे बहुत खुशनसीब होना
चाहिये था। उसे अंजू जैसी खूबसूरत और कमअक्‍ल पत्‍नी जो मिली थी। लेकिन उसकी
तो पूरी जिन्‍दगी बस कुढ़ते और चिढ़ते बीत रही है।

जबकि वजह कोई खास दिखती भी नहीं थी। वह एक अच्‍छी पत्‍नी, दो बेटों की
बेहद केयरिंग, जिम्‍मेदार और प्‍यार करने वाली मां थी। घर-गृहस्‍थी के मामले भी
चुस्‍त-दुरूस्‍त, सामाजिक जिम्‍मेदारियां निभाने में भी कुशल थी। कहीं कोई कमी
दिखती भी तो नहीं थी। फिर वह क्‍यों उससे प्‍यार नहीं कर पाया, कभी भी। हम
जिन्‍हें प्‍यार करते हैं अक्‍सर उनके बिना पूरी जिन्‍दगी बिता ले जाना उतना मुश्किल
नहीं होता जितना उनके साथ एक पल भी बिताना जिन्‍हें हम प्‍यार नहीं करते।………..
और वह अन्‍जू के साथ पूरी जिन्‍दगी बिता रहा था।

सुनील जब भी उससे मिलता, बोलता रहता। – “तू कर भी क्‍या सकता है
बेचारा। उस मत्‍स्‍यगंधा की तुझे ऐसी लत पड़ गई है कि फूलों की खुशबू से तुझे
बेचैनी होने लगती है। अभी भी वक्‍त है संभल जा।…..अंजली की जगह कोई नैगिंग
वाइफ मिली होती तो तेरी अक्‍ल अपने आप ठिकाने आ जाती।”
लेकिन इतने सालों में तो अंजू भी कितनी बदल गई है। बात-बात पर इर्रीटेट
होकर चीखना-चिल्‍लाना। पहले उसकी जली कटी को हंस कर उड़ा देती थी। गुस्‍से और
तिरस्‍कार पर फफक कर रो पड़ती थी। अब तो हर बात पर ओवर रिएक्‍ट करती है।
जो बात उसे पसन्‍द नहीं उसे ही बार-बार करती है। जैसे जैसें उस पर चर्बी चढ़ रही है
उसकी दंबगई बढती जा रही है। दोनों बेटे भी मां की ही साइड लेते हैं। बेटी होती तो
शायद उसका दर्द समझती।

दर्द उसे किस बात का है उसे खुद भी नहीं पता। नीरजा ने तो कभी कोई
कमिटमेंट नहीं किया था।
“ वो ख्‍वाब था, बिखर गया, खयाल था मिला नहीं, मगर ये दिल को क्‍या हुआ ये
क्‍यों बुझा पता नहीं।”
अर्से बाद सुनील का फोन आया था। उसकी बेटी का आई.आई.टी. में सिलेक्‍शन
हो गया था। बहुत खुश था। -“अरे हां अमित पिछले हफ्ते मैंने नेट पर सर्च करते-करते
फेसबुक पर तेरी मत्‍स्‍यगंधा को ढूंढ़ निकाला। नाम तो नीरजा माथुर था। शक्‍ल भी
काफी कुछ वेसी ही थी। बस थोड़ी मोटी और अजीब सी ज़रूर लग रही थी। लेकिन मेरा
ख्‍याल है यह वही नीरजा वर्मा है। स्‍टडीज के बारे में भी लखनऊ यूनीवर्सिटी से
सायकॉलजी में एम.ए. लिखा था। और पता है, मैडम यही चड़ीगढ़ में ही है आजकल।
तुझे और इन्‍फार्मेशन चाहिये तो नेट खोल कर सर्च कर ले।”

पूरे इक्‍कीस साल बाद उसकी कोई खबर कोई सुराग। हालांकि अब उन सब बातों
का कोई मतलब नहीं रह गया था। फिर भी उसकी बेचैनी बढ़ने लगी थी। थोड़ा सर्च
करने पर फेस बुक पर वह मिल गई थी। नीरजा माथुर। हां वही है। शक्‍ल थोड़ी बिगड़ी
जरूर थी लेकिन बड़ी सावधानी से संवारी गई थी। एक तस्‍वीर में वह सूट में थी, थोड़ी
मोटी लग रही थी। साड़ी वाला चेहरा क्‍लोज़अप में था। आंखे वैसी ही गहरी,
रहस्‍यमयी। चड़ीगढ़ के किसी डिग्री कालेज में सायकॉलजी डिपार्टमेंट में है। फ्रेंड
रिक्‍वेस्‍ट भेजता तो शायद ज्‍यादा जानकारी मिल सकती थी। इतने लंबे गैप के बाद
फिर से उस छूटे हुये सूत्र को तलाशने की हिम्‍मत नहीं पड़ी। एक हफ्ते बाद ही सुनील
का फिर फोन आया। “मैंने उसका मोबाइल नंबर पता कर उससे बात कर ली। बहुत
लम्‍बा चौड़ा परिचय देना पड़ा तब कही जाकर पहचानी मैडम। तुम्‍हारे बारे में पूछा।
जब बताया कि तुम दिल्‍ली में हो तो बोली कि अमित से यहां आकर मिलने के लिये
बोलियेगा। तुम्‍हारा कॉन्‍टेक्‍ट नम्‍बर मांगती तो दे देता लेकिन उसने मांगा नहीं तो
मैंने नहीं दिया।”

उसका मोबाइल नंबर सामने है। फिर भी पता नहीं क्‍यों बात करने का मन नहीं
हुआ। क्‍या बात कंरू? बस एक बार उसे देखने का मन हो रहा था। बस यूं ही।
हर रिश्‍ते की एक मियाद होती है शायद। उस मियाद के बाद उसकी तासीर कम
होने लगती है। नीरजा के लिये उसके दिल में जो दीवानगी का संक्रमण था उसकी
मियाद पूरी हो चुकी थी। शराब तो कब की उतर चुकी थी। बस उसका हैंगओवर ही ज़रा
लम्‍बा खिंच रहा था। यह सच है कि अब तक बहुत चैन और सुकून की जिन्‍दगी नहीं
जी सका था वह। कहीं कोई कमी नहीं फिर भी एक भटकन, एक चेचैनी – बे आरामी का

आलम हमेशा उस पर तारी रहता। निदा फाजली का वह शेर हमेशा उसे अपने बहुत
करीब लगता।
“कुछ तबीयत ही मिली थी ऐसी चैन से जीने की सूरत न हुई
।जिसको चाहा था उसे पा न सके
जो मिला उससे मोहब्‍बत न हुई ।” , शायद नीरजा को न पाने
की वजह से ही उसे यह बेचैनी रही है। फिर लगता कि शायद उसका मिज़ाज ही ऐसा है।
नीरजा मिल भी जाती तो उसकी तबीयत अपनी बेचैनी –बेआरामी का केई दूसरा बहाना
ढू़ढ लेती। वैसे भी बचपन से ही उसें कोई चीज़, कोई शै बहुत दिनों तक बहला नहीं
पाती। यहां तक कि जिस चीज़ के लिये उसके मन में बहुत ज्‍यादा तड़प होती वह भी
मिल जाने के बाद फिर कुछ ही दिनों में उसका मन उस चीज़ से उचट जाता।

नीरजा माथुर नाम की यह महिला उसके सामने थी। जब वह उनके लिये पानी लेने
उठी तो सुनील ने उसकी तरफ देख शरारतन एक आंख दबा
दी। सुनील ने सुबह ही नीरजा से मिलने का टाइम ले लिया था। वक्‍त किसी के
व्‍यक्तित्‍व को इस कदर बिगाड़ सकता है। यह नीरजा को देखकर महसूस किया जा
सकता है। फेसबुक पर तो वह काफी ठीक दिख रही थी।
अन्‍दर वह फोन पर किसी से चीख रही था। -“तुम्‍हारा दिमाग खराब है, कल
भी बिना बताये बैठ गई और आज बता रही हो कि बच्‍चे की तबीयत खराब है कल के
सारे बर्तन गन्‍दे पड़े हैं। ………. तो मैं क्‍या करूं बच्‍चे को डेंग्‍यू हो गया है तो।
दूसरी लगा लूं? और जो पांच सौ एडवांस लिये है वो कौन देगा, तुम्‍हारा बाप? कर दूंगी
नहीं अभी, तुरंत, मेरे पैसे लेकर मेरे घर आ जा नहीं तो मैं तुझे देख लूंगी।
बहुत……हलो-हलो।
और रिसीवर पटक दिया गया। दोनों एक दूसरे का मुंह देख रहे थे। शायद बहुत
गलत समय पर आ गये थे। इतना अपसेट होकर कोई क्‍या बात करसकेगा। काफी देर
बाद वह दो ग्‍लास पानी लेकर आई। चेहरा तमतमाया हुआ।

पानी पीकर सुनील उठ खड़ा हुआ। “हम चलते हैं। आपसे मिलना था, मिल लिये।
आप कभी आइये न हमारे यहां। यही सैक्‍टर चौदह में है हम।”

“अरे नहीं बैठिये, अभी तो कुछ बात ही नहीं हुई। ……आप लोग क्‍या लेंगे,
चाय या कॉफी?”
वह अपने होठों को भींच कर अपने आपको सहज दिखाने की कोशिश कर रही
थी। वाकई बहुत उलझन सी हो रही थी। यहां से निकल कर सुनील उसकी क्‍लास लेने
वाला था। फिर भी वह ढि़ठाई से सोफे पर जमा रहा। अभी उसके बारे में ठीक से कुछ
जाना ही कहां। तभी उसका मोबाइल बज उठा। ‘एक्‍सक्‍यूज मी ’ कहती हुयी वह बगल
के कमरे में चली गई। सुनील गुस्‍से और खीज से उसे उठा रहा था। – “यार चलो, यहां
से, मुझे सफोकेशन सी हो रही है।” अंदर वह फिर दांत पीस कर किसी से फुसफसा रही
थी कुछ साफ सुनाई नहीं दे रहा था। वह किसी से बहस कर रही थी। फिर शायद उधर
से फोन डिसकनेक्‍ट कर दिया गया ।

“हलो-हलो, मुग्‍धा हलो मुग्‍धा।”
वह शायद फिर से फोन मिला रही थी। फिर थोड़ी देर बाद वह एक दम पस्‍त
पराजित सी हालत में आकर सोफे पर पसर गई। कुछ देर तक शून्‍य में जमीन घूरती
रही। जैसे किसी की उपस्थिति का उसे एहसास ही न हो।
रास्‍ते में सुनील चुप था। वह शर्मिन्‍दा। – “एक्‍च्‍युली मिडिल ऐज में आकर
औरतों को घर-परिवार की बहुत सी प्राब्‍लम्‍स को फेस करना पड़ता है। इसी लिये वे
इतनी इम्‍पेशेन्‍ट और चिड़चिड़ी हो जाती है।”

“हां और हमारी बीवियों से मिडिल एज की दुश्‍मनी है शायद। ………मैंने तुझे बताया
नहीं, सोचा कि शायद वह ही अपना हाले दिल तुझसे बयां करे। साधना की सहेली की
बेटी इसकी स्‍टूडेंट है। बता रही थी कि कॉलेज में यह अपनी तलखमिज़ाजी और
अक्‍खड़पन के लिये मशहूर है। हस्‍बैंड से बहुत पहले ही डाइवोर्स हो चुका है। इतनी
बद-दिमाग, बद- मिजाज बीवी को कौन झेल पायेगा। एक स्‍पॉइल्ड बेटी है, जिसके
कारनामे पूरे चढ़ीगढ़ में मशहूर हैं। छोटा सा शहर, सब एक दूसरे की खबर रखते हैं।”
कच्‍चे रेशम सी नाज़ुक, तितली के पंखों सी कोमल, ओस की बूंदो सी निश्‍छल,
मंदिर के दिये सी पवित्र, इन्‍द्रधनुष सी सतरंगी, बादलों की दुनियां में जीने वाली,
सपनीली आंखों वाली भावुक सी नीलपरी, जलपरी मत्‍स्‍यकन्‍या, मत्‍स्‍यगंधा …!

न जाने कितने-कितने बचकाने उपमानो से, संबोधनो से भरी तेइस-चौबीस साल पुरानी
डायरी के हर पन्‍ने मुंह चिढ़ा रहे थे। हालात की तल्खियां इन्‍सान को इतना बेनूर,
इतना बदहाल बना सकती है? ……उसके तिलस्‍मी जाले एक-एक कर कटते जा रहे थे।
इतने सालों से अभिमंत्रित कील की जकड़न कम हो रही थी। आज पहली बार उसे
महसूस हुआ, अंजू की आवाज कोयल की तरह न सही, टिटिहरी की तरह भी तो नहीं है।

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